Friday, January 11, 2013

एक खिड़की

(मौसम बदले, न बदले... हमें उम्मीद की कम-से-कम
एक खिड़की तो खुली रखनी ही चाहिए. अशोक वाजपेयी 
की कविता,नरी मातीस की कलाकृति 'द ओपन विंडो' 
के साथ.)
मौसम बदले, न बदले
हमें उम्मीद की
कम-से-कम
एक खिड़की तो खुली रखनी चाहिए

शायद कोई गृहिणी
वसंती रेशम में लिपटी
उस वृक्ष के नीचे
किसी अज्ञात देवता के लिए
छोड़ गई हो
फूल-अक्षत और मधुरिमा

हो सकता है
किसी बच्चे की गेंद
बजाय अनंत में खोने के
हमारे कमरे में अंदर आ गिरे और
उसे लौटाई जा सके

देवासुर-संग्राम से लहूलुहान
कोई बूढ़ा शब्द शायद
बाहर की ठंड से ठिठुरता
किसी कविता की हल्की आंच में
कुछ देर आराम करके रुकना चाहे

हम अपने समय की हारी होड़ लगाएं
और दांव पर लगा दें
अपनी हिम्मत, चाहत, सब-कुछ 
पर एक खिड़की तो खुली रखनी चाहिए
ताकि हारने और गिरने के पहले
हम अंधेरे में
अपने अंतिम अस्त्र की तरह
फेंक सकें चमकती हुई
अपनी फिर भी
बची रह गई प्रार्थना।

8 comments:

  1. Very good your blog. With best wishes for

    Jonas

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  2. अंतस्थल से निकली बहुत बढ़िया चित्रमयी प्रस्तुति ..

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  3. भावो को संजोये रचना......

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  4. nice creation and very dep feelings

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  5. गूढ़ अर्थ लिए सुंदर रचना .......

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  6. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज शनिवार (12-1-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
    सूचनार्थ!

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  7. उम्मीद की खिड़की खुली हो तो कुछ तो ताज़ी हवा आए .... सुंदर प्रस्तुति

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  8. एक खिड़की की ये कविता कई खिड़कियों को खुली रखने की याद दिलाता है।

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