टॉप फ्लोर के मकान की बालकनी में
निहारती हूं उन रेस्टलेस कबूतरों को
सर्द गुलाबी मौसम में जो
सर्द गुलाबी मौसम में जो
मंडराते हैं मेरे आस-पास
शिद्दत से है इन्हें तलाश
किसी कोने की, बिछौने की
मैं, चाहते हुए भी
मैं, चाहते हुए भी
उन्हें अपने कमरे में
नहीं होने देना चाहती दाख़िल
जानती हूं
कि ख़त्म नहीं होगी इनकी तलाश
अचानक
जाग उठती है इंसानी फितरत
जाग उठती है इंसानी फितरत
ज़हन में आता है
एक 'डील' का ख़याल
एक 'डील' का ख़याल
क्यों न तुम घोंसला बनाने को
ले लो मेरे मकान का इक कोना
और बदले में दे दो