Thursday, May 27, 2010

तुम्हारे पंख

टॉप फ्लोर के मकान की बालकनी में 
निहारती हूं उन रेस्टलेस कबूतरों को 
सर्द गुलाबी मौसम में जो
मंडराते हैं मेरे आस-पास

शिद्दत से है इन्हें तलाश 
किसी कोने की, बिछौने की 
मैं, चाहते हुए भी 
उन्हें अपने कमरे में
नहीं होने देना चाहती दाख़िल

जानती हूं 
कि ख़त्म नहीं होगी इनकी तलाश
अचानक
जाग उठती है इंसानी फितरत
ज़हन में आता है 
एक 'डील' का ख़याल

क्यों न तुम घोंसला बनाने को 
ले लो मेरे मकान का इक कोना
और बदले में दे दो
मुझे अपने पंख। 

(अमर उजाला की पत्रिका 'रूपायन' में अक्तूबर 2010 के अंक में प्रकाशित)

Tuesday, May 25, 2010

अमरकंटक से लौटते हुए

तेज़ रफ़्तार कार में
अमरकंटक से लौटते हुए 
अचानक मिली ख़बर 

'दंतेवाड़ा में जेल-ब्रेक 
303 क़ैदी फ़रार
ज़्यादातर नक्सली' 

रूचिर जी के 
'फोनो' के बीच
कौंधते रहे कई विचार 
उल्टे-सीधे, अनर्गल


कुछ देर बाद
उनके चेहरे पर लौटे 
ख़ुशी और संतोष के 
मिले-जुले आसार 

मेरे होंठों पर भी 
आ गई मुस्कराहट 
और हादसे को भूल 
फिर से शामिल हो गई 
मैं उस तिकड़ी में। 
-माधवी
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