उदास हूं मैं
समूचा ब्रह्माण्ड
सिमटकर, हो चला है
शरीक़ मेरी उदासी में
महासागर
खाने लगे हैं गोते
आशंकाओं के
अनजान भंवर में
सतरंगी इन्द्रधनुष
रंगहीन होकर
सफेद पड़ गया है
अठखेलियां करती
उनमुक्त हवाएं
मंद हो रही हैं
धीरे-धीरे
समूचे ग्रह की ऊष्मा
सर्द हो चुकी है
यह आकाश और धरा
विलीन हो गए हैं मुझमें
और मैं उनमें।
-माधवी
बहुत अच्छा लिख रही हैं...। ऐसे ही लिखते रहिए...। मेरी शुभकामनाएँ...।
ReplyDeletewww.priyankakedastavez.blogspot.com
achhi hai..........yash...
ReplyDeleteआभार !
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