Wednesday, July 18, 2012

हां! मैं बहुत शर्मीली हूं

(किसे पता था कि आर्मी ज्वॉइन करने निकली एक लड़की बॉलीवुड पहुंचकर अभिनय की दुनिया में झंडा गाड़ेगीइसे किस्मत कहें, करिश्मा या कर्म... जो भी है लेकिन माही गिल अभिनय की जंग में सशक्त सिपहसालार बनकर उभरी हैं और उनकी जीत पक्की है। चुनिंदा फ़िल्मों से माही ने न सिर्फ़ ख़ुद को साबित किया है, बल्कि उनकी तुलना तब्बू जैसी बेहतरीन अदाकारा से होने लगी है। परदे पर जैसी नज़र आती हैं, असल ज़िंदगी में उससे बिल्कुल उलट हैं माही...) 

बचपन कहां और कैसे बीता?
चण्डीगढ़ में। वहीं पैदा हुई और पली-बढ़ी हूं। घर में अनुशासन का माहौल था, लेकिन मैं बहुत शरारती थी। पढ़ाई में अच्छी होने के कारण मेरी शरारतें अक्सर नज़रअंदाज़ कर दी जाती थीं। चण्डीगढ़ में स्कूल-कॉलेज में अच्छा समय गुज़रा। यूनिवर्सिटी के दिन भुलाए नहीं भूलते, वह मेरे जीवन का बेहतरीन वक्त था, वहां से मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला।
एक्टिंग के क्षेत्र में कैसे आईं?
मैं सिख परिवार से हूं और बचपन से ही आर्मी ज्वॉइन करना चाहती थी। नाना फौज में थे, इसलिए वह माहौल शुरू से पसंद था। मैंने कॉलेज में नेशनल कैडेट कोर ज्वॉइन किया। फायरिंग में मेरा कमांड बहुत अच्छा था। देशभर से कुल 16 एनसीसी छात्राओं को फौज के लिए चुना गया, उनमें से एक मैं थी। हमें चेन्नई भेजा गया, लेकिन वहां पैरासेलिंग के दौरान मुझे चोट लग गई और लौटना पड़ा। 
चण्डीगढ़ आकर पंजाब यूनिवर्सिटी में मैंने इंडियन थिएटर का फॉर्म भर दिया। स्कूल में एकाध बार नाटक किया था, लेकिन थिएटर की बाक़ायदा पढ़ाई भी होती है, यह नहीं पता था। मैंने फॉर्म महज़ इसलिए भरा था क्योंकि मुझे यूनिवर्सिटी में दाख़िला लेना था। हालांकि जैसे-जैसे थिएटर के बारे में जानना शुरू किया तो एक अलग दुनिया मेरे सामने आती गई। इसके बाद मैंने ख़ुद को पूरी तरह थिएटर के प्रति समर्पित कर दिया। एक्टिंग की शुरुआत वहीं से हुई।
...और मुंबई का सफ़र?
कुछ निजी कारणों से मैं चण्डीगढ़ छोड़ना चाहती थी, लेकिन एक्टिंग के अलावा ऐसा कुछ नहीं था, जो मैं कर सकती थी। पहले कुछेक पंजाबी फ़िल्मों में काम कर चुकी थी, लगा कि मुंबई जाकर किस्मत आज़मानी चाहिए। सामान पैक किया और आ गई। मैं सेल्फ-मेड इंसान हूं। मुझे यह पसंद नहीं है कि कोई मुझे सहारा दे, इसलिए मुंबई आकर इंडस्ट्री में काम ढूंढने के सिवा मेरे पास दूसरा कोई विकल्प नहीं था। 
जब मुंबई आईं तो ज़हन में क्या था? 
अच्छा-बुरा कुछ भी नहीं सोचा था। यही दिमाग में था कि रोज़ी-रोटी तो चल ही जाएगी। टेलीविज़न में काम कर लूंगी या शायद फ़िल्मों में भी छोटे-मोटे रोल मिल जाएं। पत्रिकाओं में पढ़ती थी कि फलां न्यूकमर को किसी डायरेक्टर ने कॉफी-शॉप में स्पॉट कर लिया, किसी पेट्रोल पंप पर या किसी पार्टी में देखकर उसे फ़िल्म ऑफर कर दी। यह सोचकर मैं रोज़ पार्टियों में जाने लगी कि शायद मुझे भी कोई डायरेक्टर देख लेगा और अपनी फ़िल्म में साइन कर लेगा। यह मुश्किल भी था, क्योंकि इतने पैसे नहीं होते थे कि मैं रोज़ नए कपड़े ख़रीद सकूं। मुझे याद है कि एक पार्टी में जाने के लिए मैंने पहली बार अपने बाल ब्लो-ड्राई करवाए, जिसमें 600 रुपए ख़र्च हो गए। मैंने सोचा कि ऐसे ही चलता रहा तो मैं खाऊंगी क्या! फिर मैंने इस्तरी से अपने बाल सीधे करने शुरू किए, महंगे कपड़ों के बजाय मिक्स-एंड-मैच करके कपड़े पहनने शुरू किए। इस तरह मैं क़रीब साल भर तक पार्टियों और डिस्कोथेक्स में जाती रही, लेकिन कुछ नहीं हुआ।
एक बार मैं किसी दोस्त के बच्चे की बर्थडे पार्टी में नाच रही थी। वहां अनुराग कश्यप ने मुझे देखा और नो स्मोकिंग फ़िल्म में काम करने का ऑफर दिया। हालांकि वह फ़िल्म मैं नहीं कर पाई, क्योंकि निर्माता नहीं चाहते थे कि कोई नई लड़की फ़िल्म करे, लेकिन बाद में मुझे देव डी में मौक़ा मिला।
फ़िल्मों में थिएटर कितना काम आया है?
थिएटर ने मेरे अंदर आत्मविश्वास पैदा किया है। सह-कलाकारों के साथ दिक्कत नहीं आती, क्योंकि हमेशा यह ज़हन में रहता है कि आपको अपना बेहतर देना है। थिएटर की वजह से लंबे-लंबे संवाद आसानी से बोल पाती हूं। हालांकि कुछ चीज़ों पर मुझे काम करना पड़ा। थिएटर में आप बहुत ला होते हैं, क्योंकि आपको आख़िरी सीट पर बैठे दर्शक तक पहुंचना होता है। दूसरा, फ़िल्मों में कैमरा आपके हर छोटे-बड़े इमोशन और एक्सप्रेशन को पकड़ता है इसलिए शूटिंग के दौरान काफी सजग रहना पड़ता है। मैं थिएटर बहुत मिस करती हूं, लेकिन थिएटर ब्रेड मुश्किल से दे पाता है, बटर तो दूर की बात है।
साहब, बीबी और गैंगस्टर में माधवी का किरदार बोल्ड था, इसे निभाने में दिक्कत आई?
काफी चैलेंजिंग था। फ़िल्म के एक दृश्य में मुझे शराबी दिखना था। कुछ समझ नहीं आ रहा था। मैंने तिग्मांशु जी से कहा कि अगर मैं वोदका के एक-दो शॉट ले लूं तो शायद अच्छा अभिनय कर पाऊंगी। पैग पीकर मैं सैट पर पहुंची। वोदका ठीक-ठाक असर कर गया था क्योंकि मैंने सारा दिन कुछ नहीं खाया था। दृश्य फिल्माए जाने के बाद मैं तिग्मांशु जी से कहती रही कि फिर से शूट कर लेते हैं, लेकिन वो नहीं माने। मुझे बाद में पता चला कि सीन कमाल का हुआ था। मैथड एक्टिंग काम तो आई, लेकिन फिर मैंने इससे तौबा कर ली। 
पंजाबी फ़िल्मों में भी काम कर रही हैं?
मुंबई आने के बाद मैं पंजाबी फ़िल्मों में काम नहीं कर पाई। लेकिन हाल में एक दोस्त के कहने पर पंजाबी फ़िल्म की है, जो उसका डायरेक्टर भी है। फ़िल्म का नाम कैरी ऑन जट्टा है। यह रोमांटिक कॉमेडी है और ऐसा रोल मैं पहली बार कर रही हूं। जब भी पंजाब जाती हूं तो लोग शिक़ायती लहज़े में कहते हैं कि मैं पंजाबी फ़िल्में क्यों नहीं करती। मैं तहे-दिल से शुक्रगुज़ार हूं कि मेरे करियर की शुरुआत पंजाबी फ़िल्मों से हुई और आज मैं जो कुछ भी हूं, उन फ़िल्मों की वजह से ही हूं। रोल अच्छा हो तो पंजाबी फ़िल्में करने से मुझे कोई परहेज़ नहीं है।
आपने अनुराग कश्यप और तिग्मांशु धूलिया जैसे फ़िल्मकारों के साथ काम किया है, दोनों की निर्देशन शैली में क्या अंतर है?
अनुराग और तिग्मांशु, दोनों हमेशा नई चीज़ें लेकर आते हैं और कमाल के अभिनेता भी हैं, लेकिन दोनों के काम करने का तरीका बिल्कुल अलग है। अनुराग एक्टर को परफॉर्म करने के लिए खुला छोड़ देते हैं। ख़ुद वो सेट पर किसी बच्चे की तरह होते हैं। कोई शॉट अच्छा हो जाए तो जोश में आकर एक्टर को गले से लगा लेते हैं। तिग्मांशु को कोई सीन पसंद न आए तो वो ख़ुद उसे एक्ट करके बताते हैं और यह काम वो इतनी अच्छी तरह से करते हैं कि समझ में न आने का सवाल ही नहीं होता। उनके समझाने का तरीका बहुत अच्छा है। अनुराग और तिग्मांशु, दोनों अपनी-अपनी जगह कमाल के निर्देशक हैं।
पुराने दौर और आज के सिनेमा में क्या बुनियादी फर्क़ आया है?
बहुत फर्क़ आ चुका है। समय के साथ-साथ दर्शक भी बदल चुका है। आज का सिनेमा ज़्यादा यथार्थवादी है। पहले जिस तरह की फ़िल्में होती थीं, उनमें शायद ही कुछ प्रैक्टिकल या रियलस्टिक होता था। अब दर्शक वास्तविकता से ज़्यादा सरोकार रखते हैं। अभिनय, संवाद अदायगी, यहां तक कि पूरी शैली में ही बदलाव आ गया है। पहले कम फ़िल्में बनती थीं, अब एक दिन में पांच-पांच फ़िल्में रिलीज़ होती हैं। पहले कोई फ़िल्म ख़त्म करने में एक साल लग जाता था, अब फ़िल्म तीस दिन में पूरी हो जाती है। दर्शकों को लुभाने के लिए प्रमोशन भी उसी हिसाब से करनी पड़ता है, अब मार्केटिंग के हथकंडे अपनाकर उन्हें थिएटर तक लाना पड़ता है।
ख़ूबसूरती के पैमाने भी बदले हैं, इस पर क्या कहेंगी?
पुराने ज़माने में अभिनेत्रियों में मासूमियत और ताज़गी नज़र आती थी। पहले लड़कियों को फ़िल्म इंडस्ट्री में जाने की इजाज़त नहीं मिलती थी, जिन्हें मंज़ूरी मिलती थी, उन्हें फ़िल्मों के बारे में कुछ पता नहीं होता था। तब हीरोइनों के लुक पर बहुत ध्यान दिया जाता था, आजकल पूरे पैकेज पर ग़ौर किया जाता है। अब फ़िल्मों में आने से पहले बाक़ायदा प्रशिक्षण लिया जाता है। चाहे मैं हूं या कोई और, सब प्रशिक्षित हैं। हमारी मासूमियत इसलिए भी ख़त्म हो जाती है, क्योंकि हम पहले से सब जानते हैं। मेरी एक आंटी ने मुझसे कहा कि जब तुम नॉट ए लव स्टोरी में रो रही थीं तो तुम्हें इतनी बुरी शक्ल बनाने की क्या ज़रूरत थी, थोड़ा आराम से रोना चाहिए था। मुझे उन्हें बताना पड़ा कि अगर मैं आराम से रोती तो दर्शक मुझसे जुड़ नहीं पाते, मैं उन्हें अपने दुख में शामिल नहीं कर पाती। पहले हंसते या रोते हुए भी ख़ूबसूरत दिखना ज़रूरी होता था, लेकिन अब ऐसा नहीं है। पुराने दौर की अभिनेत्रियां फिगर पर उतना ध्यान नहीं देती थीं, फिर भी वे अच्छी लगती थीं, लेकिन अब फिटनेस पर पूरा ध्यान देना पड़ता है। ज़रा-सा वज़न बढ़ा नहीं कि हम चर्चा का विषय बन जाते हैं। किसी रोल विशेष के लिए थोड़ा वज़न बढ़ाने के लिए कहा जाता है लेकिन बाद में हमें उसी तरह पतला दिखना पड़ता है। 
फिट रहने के लिए क्या करती हैं?
जब भी वक्त मिलता है तो कार्डियो कर लेती हूं। सुबह उठकर गरम पानी ख़ूब पीती हूं। अभी योग शुरू किया है। सुबह-शाम एक घंटा योग के लिए निकालती हूं। मैं बहुत जल्दी चिढ़ जाती हूं, ऐसे में योग फ़ायदेमंद साबित हुआ है। इससे मुझे शांत और संतुलित रहने में मदद मिल रही है।
किस्मत पर कितना भरोसा है?
पूरा... किस्मत ने अब तक पूरा साथ दिया है। किस्मत नहीं होती तो बच्चे की पार्टी में पागलों की तरह नाचते हुए देखकर अनुराग कश्यप मुझे फ़िल्म का ऑफर नहीं देते। अगर अनुराग ने देव डी के लिए मेरा ऑडिशन लिया होता तो शायद मैं आज यहां नहीं होती क्योंकि मैं ऑडिशन देने में बहुत बुरी हूं। मैंने कई फ़िल्मों के लिए ऑडिशन दिए थे, लेकिन ठीक न कर पाने की वजह से हमेशा रह जाती थी। मुझे आज भी ऑडिशन देने में वैसी ही घबराहट होती है जैसी किसी बच्चे को परीक्षा के समय होती है। सच तो यह है कि किस्मत के साथ मेहनत भी ज़रूरी है। ऐसा नहीं है कि किस्मत से ही सब संभव हो जाता है। मेहनत करते हैं तो नसीब भी साथ देता है।   
ख़ुशी के क्या मायने हैं?
किसी की मदद करना। आपकी वजह से किसी के चेहरे पर ख़ुशी आती है तो जीवन में इससे बड़ा सुख और कुछ नहीं है। आप किसी के लिए कुछ करते हैं तो अपनी संतुष्टि और ख़ुशी के लिए करते हैं। लोग कहते हैं कि हमने उसके लिए यह कर दिया, वह कर दिया, लेकिन ऐसा कहना ठीक नहीं है। मेरा जीवन दर्शन है- सकारात्मक रहना और हमेशा ख़ुश रहना। किसी का अच्छा नहीं कर सकते तो बुरा भी नहीं करना चाहिए। पंजाबी में एक कहावत है कि नीतां नूं मुरादां...। अगर आपकी नीयत अच्छी है तो आपके साथ हमेशा अच्छा ही होता है, आप हमेशा ख़ुश रहते हो। किसी का रास्ता रोकने की कोशिश कभी नहीं करनी चाहिए क्योंकि जो आपको मिलना है, वह तो मिलेगा ही।
अपने बारे में ऐसी बात बताएं, जो किसी को नहीं पता!
लोगों को लगता है कि मैं बहुत बिंदास हूं, लेकिन ऐसा नहीं है। मैं बहुत शर्मीली हूं। जब काम नहीं कर रही होती तो घर में ही रहती हूं। मुझे पार्टियों में जाना बिल्कुल पसंद नहीं है। मैं सिर्फ़ उन लोगों के साथ ही सहज महसूस करती हूं, जिन्हें मैं अच्छी तरह जानती हूं।  
ख़ाली वक्त में क्या करती हैं?
नींद पूरी करती हूं। दोस्तों से मिलती हूं, उन्हें घर बुलाती हूं या उनके घर चली जाती हूं। हम जब भी मिलते हैं, अच्छा खाना बनाते हैं और ख़ूब मस्ती करते हैं। ये सब वो दोस्त हैं जिन्होंने बुरे वक्त में भी मेरा साथ नहीं छोड़ा। आप चाहे किसी भी मुकाम पर पहुंच जाएं, उन दोस्तों को नहीं भूलना चाहिए जो मुश्किल वक्त में भी आपके साथ खड़े हों, क्योंकि वही दोस्त आपके शुभचिंतक और सच्चे आलोचक होते हैं। मेरे दोस्त मुझे स्टार की तरह नहीं लेते, बल्कि अच्छा काम करने पर तारीफ़ करते हैं और ख़राब करने पर आलोचना। वे मुझे मेरी ख़ामियां बताते रहते हैं। दोस्तों के साथ समय बिताने के अलावा मुझे घूमने का बहुत शौक है। 
भारत में पसंदीदा जगह कौन-सी है?
केरल। वैसे, मुझे पहाड़ों पर जाना बहुत भाता है। मनाली, मसूरी और नैनीताल मेरी पसंदीदा जगहें हैं। समय मिलते ही नॉर्थ-ईस्ट जाना है। मुंबई में पसंदीदा जगह है- मेरा घर, उससे बेहतर जगह मेरे लिए पूरी दुनिया में कहीं नहीं है। रेस्तरांओं में अर्बन तड़का, क्योंकि वहां बहुत अच्छा भारतीय भोजन मिलता है। कॉन्टिनेंटल खाने के लिए पॉप टेट्स जाती हूं।
खाने में क्या पसंद है?
देसी खाना। मांसाहारी से ज़्यादा शाकाहारी खाने को तरजीह देती हूं। छोले-कुलचे, सरसों का साग और मक्की की रोटी बेहद पसंद है। इसके अलावा ग्रीस और इटली का भोजन भी अच्छा लगता है। वैसे मैं ख़ुद बहुत अच्छा खाना बना लेती हूं... ख़ासतौर से छोले, सूखे आलू और पनीर-दो-प्याज़ा। बहुत-से लोग बैंगन पसंद नहीं करते लेकिन मेरे हाथ की बनी बैंगन की सब्ज़ी खाकर पसंद करने लगते हैं।
परिवार में कौन-कौन है?
दो भाई, जो मां के साथ अमरीका में रहते हैं। बहुत वक्त बीत गया है उनसे मिले हुए। सबको काफी मिस करती हूं, ख़ासकर जब चण्डीगढ़ जाना होता है। पंजाब में बिताए वे दिन बहुत याद आते हैं, जब हम सब छुट्टियों में अपने लुधियाना वाले फॉर्महाउस में इकट्ठा होते थे। 
अभी तक के किस किरदार से संतुष्ट हैं? 
सबसे। मैंने जितनी भी फ़िल्में की हैं, उनमें ज़्यादातर गंभीर रोल ही अदा किए हैं, लेकिन मुझे लगता है कि इससे मेरी ग्रोथ कहीं-न-कहीं रुक सकती है। मुझे कॉमेडी भी करनी चाहिए और एक्शन भी। हर तरह का किरदार निभाऊंगी तो ख़ुद को संतुष्ट मानूंगी। 
अपनी किस ख़ूबी से प्यार है?
मेरे ख़याल से मैं सच्ची और ईमानदार हूं और यही मेरी ख़ूबी है।
आने वाले पांच साल में ख़ुद को कहां देखती हैं?
शायद मेरी शादी हो चुकी होगी, पर मैं इसी तरह काम कर रही होऊंगी।
...कब कर रही हैं शादी?
फिलहाल तो नहीं, लेकिन जब भी करूंगी तो आपको ज़रूर बुलाऊंगी।
सबसे बड़ा सपना?
मैं रोज़ नए-नए सपने देखती हूं, लेकिन स्वभाववश मैं संतुष्ट रहने वाली इंसान हूं। जितना है, उसमें ख़ुश रहने की कोशिश करती हूं। बहुत इच्छाएं होतीं तो एक-साथ कई फ़िल्में साइन कर चुकी होती। मुझे पैसे कमाने का लालच नहीं है, कम लेकिन अच्छा काम ही मेरा सपना है। मैं जब तक चुस्त-दुरुस्त हूं, फ़िल्में करना चाहती हूं क्योंकि मैं फ़िल्मों में ही सोती-जागती और जीती हूं। एक अदाकार के जीवन में संघर्ष हमेशा रहता है। हमें हर फ़िल्म में ख़ुद को साबित करना पड़ता है। कोशिश रहती है कि मैं और बेहतर कर सकूं, अपने अभिनय में और सुधार ला सकूं। काम करती रहूं और दर्शक मेरे काम को सराहते रहें, यही इच्छा है। 
प्रिय किताबें?
कॉमिक्स, आर्ची मेरी पसंदीदा है।
प्रिय फ़िल्में?
लम्हे, गाइड, और चालबाज़
पसंदीदा गायक?
गुलाम अली ख़ान की बहुत बड़ी फैन हूं। उनकी सब ग़ज़लें पसंद हैं।
प्रिय अभिनेता/अभिनेत्रियां?
आमिर ख़ान, ऋतिक रोशन और रणबीर कपूर। अभिनेत्रियों में रेखा, श्रीदेवी, तब्बू, विद्या बालन और करीना कपूर।
जीवन का अर्थ?
जियो और जीने दो। 

(दैनिक भास्कर की मासिक पत्रिका 'अहा ज़िंदगी' के जुलाई 2012 अंक में प्रकाशित)

Friday, July 13, 2012

पुरुष आए मंगल से, स्त्री कौन देश से आईं?

अक़्सर कहा जाता है कि हम सब दुनिया की भीड़ में अकेले हैं, हम अकेले आए थे और अकेले ही जाएंगे। पर इस अकेले आने-जाने के सफ़र के बीच हम अकेले नहीं रह पाते। लगभग हर इंसान देर-सवेर किसी संबंध में बंधता ही है। मनुष्य का सबसे पहला संबंध अपनी मां से होता है, फिर पिता, भाई, बहन, पत्नी, बच्चे और सगे-संबंधी उसके जीवन से जुड़ते हैं। 
एक संबंध की उत्पत्ति की व्याख्याएं अनेक
बाइबल के मुताबिक, ईश्वर ने सात दिन में कायनात रच दी थी। उसने जन्नत बनाई, धरती का सृजन किया, जीव-जंतु व पेड़-पौधे तैयार किए, अलग-अलग मौसम रचे और इन सबकी हिफ़ाज़त के लिए मनुष्य का सृजन किया। ख़ुदा ने जो पहला इंसान बनाया, उसे आदमनाम दिया। फिर उसने एक ख़ूबसूरत बगीचा तैयार किया, जिसका नाम ईडनरखा। बगीचे में बेहतरीन पेड़ लगाए और आदम को इसमें रहने के लिए छोड़ दिया, लेकिन साथ ही उसे हिदायत दी गई कि वो एक पेड़ के सिवा बगीचे के किसी भी पेड़ से मनचाहा फल खा सकता है। आदम अकेला न रहे इसलिए ख़ुदा ने एक और इंसान रचा। यह एक औरत थी जिसे हव्वा (ईव) नाम दिया गया। आदम और हव्वा के अलावा ख़ुदा ने एक और जीव की रचना की, जो सांप था। सांप ने हव्वा को वर्जित पेड़ से फल खाने के लिए फ़ुसलाया। इस पर हव्वा ने आदम से भी वो फल खाने के लिए कहा। फल खाकर दोनों को अच्छे-बुरे का भान हुआ लेकिन ख़ुदा ने उन्हें इसकी सज़ा दी और उन्हें बगीचे से बाहर निकाल दिया। बाइबल के इसी हिस्से से आदम और हव्वा के सांसारिक जीवन की शुरुआत मानी जाती है।
हिन्दू मान्यता के अनुसार धरती पर पहला आदमी मनु हुआ। मत्स्य पुराण में ज़िक्र है कि पहले ब्रह्मा ने दैवीय शक्ति से शतरूपा(सरस्वती) की रचना की, फिर ब्रह्म और शतरूपा के संसर्ग से मनु का जन्म हुआ। मनु ने कठोर तपस्या के बाद अनंती को पत्नी रूप में प्राप्त किया। शेष मानव जाति मनु और अनंती के संसर्ग से उत्पन्न हुई मानी गई है। भगवत पुराण में मनु और अनंती की संतानों का वृहद उल्लेख है। हालांकि ऋग्वेद में मनुष्य की उत्पत्ति की कहानी कुछ और है। इसमें कहा गया है कि प्रजापति की पांच संतानों से मानव जाति आगे बढ़ी।
क्या हम सचमुच अलग-अलग ग्रहों से हैं?
अलग-अलग धर्मों के अलग-अलग मत हैं, मान्यताएं हैं। लेकिन उनमें एक साम्यता है कि पहले पुरुष आया, फिर स्त्री। दोनों में संबंध बना और संसार आगे बढ़ा। जब सब धर्मों के मत स्थापित हो चुके थे तो 1990 में अमेरिकी लेखक जॉन ग्रे स्त्री-पुरुष से संबंधित एक नया मत लेकर आए। इस मत के अनुसार, पुरुष मंगल ग्रह से हैं और महिलाएं शुक्र ग्रह से। उन्होंने इस विषय पर एक किताब लिख डाली जो अपने समय की सर्वाधिक बिकने वाली किताब साबित हुई। इस पुस्तक की अब तक 70 लाख से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं। इसी किताब के मुताबिक, एक किस्सा यह भी है कि एक दिन मंगलवासियों ने टेलीस्कोप से शुक्र ग्रह की तरफ़ झांका, और वहां जो नज़ारा उन्हें दिखा, वह अद्भुत था। मंगलवासी शुक्र ग्रह पर रहने वाली स्त्रियों को देखते ही उनके प्रेम में पड़ गए। आव देखा न ताव, मंगलवासियों ने एक स्पेसशिप ईज़ाद किया और शुक्र ग्रह पर पहुंच गए। शुक्र ग्रह की स्त्रियों ने भी उनका दिल खोलकर स्वागत किया। स्त्रियां पहले से जानती थीं कि एक दिन ऐसा आएगा जब उनके हृदय प्रेम की छुअन महसूस करेंगे। दोनों वर्गों के बीच प्रेम पनपा और वे साथ-साथ रहने लगे। वे एक-दूसरे की आदतें समझने की कोशिश करने लगे। इस कोशिश में सालों बीत गए, लेकिन इस दौरान वे प्रेम और सौहार्द से रहे। एक दिन उन्होंने पृथ्वी पर आने का फ़ैसला किया। शुरुआत में सब ठीक था लेकिन धीरे-धीरे उन पर धरती का असर कुछ इस तरह होने लगा कि उनकी याददाश्त जाती रही। वे भूल गए कि वे दो अलग-अलग ग्रहों से आए प्राणी हैं, इसलिए उनकी आदतें और ज़रूरतें भी एक-दूसरे से जुदा होंगी। एक सुबह वे उठे तो पाया कि एक-दूसरे के बीच के अंतर को वे बिल्कुल भूल चुके हैं। यहीं से उनमें द्वंद्व की शुरुआत हुई, जो आज तक जारी है।
जॉन ग्रे ने पुरातन काल से चली आ रही मान्यताओं और पौराणिक धारणाओं से बिल्कुल जुदा एक बात कह दी। हालांकि पुरुषों के मंगल ग्रह से और स्त्रियों के शुक्र ग्रह से होने की उनकी बात को एक खोज या सत्य के अन्वेषण के रूप में नहीं लिया गया है। ग्रे की बात को एक लेखक के औरत-मर्द को लेकर विश्लेषण या एक विचार के रूप में लिया गया है। पर उनका इस विचार को पेश करने का ढंग इतना मज़ेदार था कि लोग इसके दीवाने हुए बिना नहीं रह पाए। ग्रे ने अपनी पुस्तक में एक जगह लिखा है, पुरुषों की शिकायत है कि जब वे किसी ऐसी समस्या का हल रखने की कोशिश करते हैं, जिसके बारे में महिलाएं बात करना चाहती हैं, तो होता यह है कि महिलाएं उस समस्या के बारे में सिर्फ़ बात करना चाहती हैं, हल नहीं ढूंढ़ना चाहतीं।
ग्रे कहते हैं कि स्त्री और पुरुष के बीच की समस्याओं का मुख्य कारण उनका स्त्री और पुरुष होना है। उनका लिंगभेद ही उनकी समस्याओं की जड़ है। अपनी बात को समझाने के लिए ग्रे कहते हैं कि पुरुष मंगल से हैं और स्त्रियां शुक्र से... और ये दोनों ही अपने ग्रहों के समाज और रीति-रिवाज़ों से बंधे हुए हैं। ये दोनों प्रजातियां इन्हीं ग्रहों के प्रताप की वजह से एक ख़ास तरह का आचरण करती हैं। यही वजह है कि स्त्री-पुरुष का समस्याओं, तनाव, तनावपूर्ण स्थितियों, यहां तक कि प्यार से निपटने का भी एक अलग अंदाज़, एक अलग नज़रिया है।
ग्रे ने स्त्री-पुरुष की बात की, उनके परस्पर संबंधों की बात की। ग्रे की तरह दुनिया के तमाम बुद्धिजीवी, लेखक, विचारक और दार्शनिक अपने-अपने अंदाज़ में संबंधों के विषय में अपनी-अपनी बात कहते आए हैं, अपने विचार और तथ्य पेश करते आए हैं। फिर भी स्त्री-पुरुष संबंधों का ताना-बाना इतना जटिल और हर रोज़ नए रंग व आयाम दिखाने वाला है कि कोई एक धारणा या एक मत केवल कुछ समय तक ही अपना वजूद और आकर्षण बनाए रख पाता है। समय के साथ हर विचार पर एक नया विचार और हर धारणा पर एक नई धारणा अपना प्रभाव दिखाने लगती है।
अनुभवों ने संबंधों को दी बेहतरीन अभिव्यक्ति
स्त्री-पुरुष के संबंधों को लेकर विभिन्न लेखकों, कवियों, बुद्धिजीवियों ने बहुत कुछ कहा है और इनमें से ज़्यादातर के विचार उनके अपने अनुभवों और अपनी ज़िंदगी की मथनी में मथ कर बाहर आए हैं। इनमें से कवियों को तो उनके संबंधों ने ही कवि और लेखक बनाया है। अब चाहे वो भारत के मोहन राकेश हों या तुर्की के नाज़िम हिकमत।
मोहन राकेश अपने जीवन में स्त्रियों के साथ अपने संबंधों के दरिया में डूबते-तैरते रहे। उनकी यही छटपटाहट, यही कोशिश उनकी लेखनी में भी साफ़ नज़र आती है। आषाढ़ का एक दिन’, आधे-अधूरे’, लहरों के राजहंसजैसे नाटकों और उनकी लिखी सैकड़ों उम्दा कहानियों में स्त्री-पुरुष के संबंधों का एक अनूठा जाल बुना गया है। आषाढ़ का एक दिनमें नायिका मल्लिका, नायक कालिदास से कहती है कि मेरी आंखें इसलिए गीली हैं कि तुम मेरी बात नहीं समझ रहे। तुम यहां से जाकर भी मुझसे दूर हो सकते हो...? यहां ग्राम-प्रान्तर में रहकर तुम्हारी प्रतिभा को विकसित होने का अवसर कहां मिलेगा? यहां लोग तुम्हें समझ नहीं पाते। वे सामान्य की कसौटी पर तुम्हारी परीक्षा करना चाहते हैं। विश्वास करते हो न कि मैं तुम्हें जानती हूं? जानती हूं कि कोई भी रेखा तुम्हें घेर ले, तो तुम घिर जाओगे। मैं तुम्हें घेरना नहीं चाहती। इसलिए कहती हूं, जाओ।
कितना जटिल, और देखा जाए तो कितना सरल चित्रण है संबंधों का! जिसने पूरा नाटक न भी पढ़ा हो या न भी देखा हो, वो भी केवल ये चंद पंक्तियां पढ़कर बहुत कुछ महसूस कर सकता है। और यह बात तय है कि केवल वही इंसान किसी को ऐसा महसूस करवा सकता है जिसने ख़ुद ऐसा महसूस किया हो। मोहन राकेश भी अपनी ज़िंदगी के किसी मोड़ पर कालिदास की इस स्थिति-विशेष में रहे होंगे, और उनके जीवन में भी किसी मल्लिका ने ऐसे ही कुछ भाव प्रकट किए होंगे, तभी तो वो अपने शब्दों में यह जादू लेकर आ पाए।
जहां एक ओर मोहन राकेश अपने संबंधों को मूर्त-रूप में मौजूद होकर जीते रहे, वहीं नाज़िम हिकमत ने अपनी जिंदग़ी का ज़्यादातर हिस्सा जेल में बिताया। जेल में रहकर वे अपने जीवन में घटित स्थितियों, घटनाओं और संबंधों पर कविताएं कहते रहे। नाज़िम हिकमत की मनोदशा के एक पहलू की झलक तब मिलती है जब वे क़ैदख़ाने से अपनी पत्नी को लिखते हैं- 
सबसे ख़ूबसूरत महासागर वह है 
जिसे हम अब तक देख पाए नहीं 
सबसे ख़ूबसूरत बच्चा वह है 
जो अब तक बड़ा हुआ नहीं 
सबसे ख़ूबसूरत दिन हमारे वो हैं 
जो अब तक मयस्सर हमें हुए नहीं 
और जो सबसे ख़ूबसूरत बातें मुझे तुमसे करनी हैं 
अब तक मेरे होंठों पर आ पाई नहीं।
इन पंक्तियों में नाज़िम के भीतर का दर्द, उस सज़ायाफ़्ता क़ैदी का दर्द सामने आता है, जिसका क़सूर सिर्फ़ इतना था कि कि वो कविताएं लिखता था। कविताएं जो व्यवस्था और सरकार को पसंद नहीं आती थीं, लेकिन नाज़िम को जेल की उस अंधेरी, सीलन भरी ठंडी कोठरी में उनके संबंधों की गर्मी ने ताक़त दी। उनके भीतर ऊर्जा और अहसासों का लावा बहाए रखा, जो उन्हें अपनी सदी का महान कवि और एक महत्वपूर्ण शख़्सियत बना गया।
प्रेम में विवाह और विवाह में प्रेम
मुक्त प्रेम, विवाह की कार्बन कॉपी है। अंतर यही है कि इसमें निभ न पाने की स्थिति में तलाक की आवश्यकता नहीं है। फ्रेंच लेखिका सिमोन द बोवुआ और बीसवीं सदी के महान विचारक व लेखक ज्यां पाल सार्त्र का रिश्ता बिल्कुल अलग तरह का था। वे कभी साथ नहीं रहे। पचास वर्षों तक उनका अटूट संबंध उनके लिए बहुधा सामान्य घरेलू जीवन जैसा ही था। वे लंबे समय तक होटलों में रहे, जहां उनके कमरे अलग-अलग थे। कभी-कभी तो वे अलग मंज़िलों पर भी रहे। बाद में सिमोन अपने स्टूडियो में रहीं और सार्त्र अपना मकान ख़रीदने से पहले अपनी मां के साथ रहे। किसी स्त्री-पुरुष के बीच यह एक ऐसा संबंध था, जिसकी पारस्परिक समझ केवल मृत्यु के द्वारा ही टूटी। इन दोनों का प्रेम मुक्त नहीं था, बल्कि आनंदहीन, नीरस चीज़ों से उन्हें असम्बद्ध और मुक्त रखता था। यही वजह है कि सार्त्र के साथ अपने संबंध को सिमोन ज़िंदगी का सबसे बड़ा हासिल मानती थीं। 
एक सफ़ल विवाह से प्यारा, दोस्ताना और अच्छा रिश्ता और कोई नहीं हो सकता...मार्टिन लूथर की यह बात सोलह आने सही है। किन्तु आधुनिक जीवन में सफल विवाह के कुछ सबसे बड़े शत्रु उभरकर सामने आए हैं, और उनमें से प्रमुख हैं- ईगो, दंभ और घमंड। इन तीनों शब्दों के अर्थों में कुछ भेद ज़रूर है पर इनकी आत्मा एक है। इनका वार एक-सा है, प्रहार एक-सा है और इनका असर भी एक-सा है। जब तक ये तीनों ज़िंदा हैं, सफ़ल विवाह दम तोड़ता नज़र आता है। हम अपनी ईगो के चलते विवाह जैसे ख़ूबसूरत रिश्ते की बलि चढ़ाने में भी नहीं हिचकिचाते। इसके विपरीत अगर ईगो को ही बलि की वेदी पर चढ़ा दिया जाए तो विवाह जैसा संबंध हमारे जीवन में नई रोशनी भर सकता है। ईगो, घमंड और दंभ को टक्कर देने के लिए हमारे पास कुछ हथियार हैं और वो हथियार हैं, प्यार और त्याग... क्योंकि अगर प्यार है तो त्याग है, और त्याग है तो रिश्ता टूट ही नहीं सकता। बल्कि वो अच्छे से फले-फूलेगा और मिठासभरा होगा। जहां दंभ है, वहां प्यार नहीं रह सकता, वहां हम एक-दूसरे के साथ नहीं, एक-दूसरे से मिलकर नहीं, बल्कि एक-दूसरे से अलग होकर जी रहे होते हैं। 
जुदा होकर भी...
वूडी एलन ने स्त्री-पुरुष के संबंध की तुलना शार्क से की है। वे कहते हैं कि शार्क की ही तरह किसी रिश्ते को भी आगे बढ़ते रहना चाहिए, नहीं तो उसके दम तोड़ने की गुंजाइश है। उनके इस कथन में दम है। यह विचार आजकल के जन-मानस के लिए उपयोगी साबित हो सकता है क्योंकि अब अरेंज्ड मैरिज की जगह प्रेम-विवाहों की संख्या बढ़ रही है। पर इस सबके बीच कुछ प्रेम ऐसे होते हैं जो विवाह तक नहीं पहुंच पाते और ब्रेक-अप का शिकार हो जाते हैं। ज़्यादातर मामलों में इन ब्रेक-अप्स की वजह बहुत छोटी होती हैं लेकिन उस वक्त प्रेम में आकंठ डूबे प्रेमियों को वही छोटी वजहें बहुत बड़ी नज़र आती हैं और नतीजा होता है ब्रेक-अप। लेकिन प्रेमी जोड़ा कुछ समय के लिए उन वजहों को नज़रअंदाज़ करके किसी शार्क की तरह आगे बढ़ता जाए और उस संबंध को विवाह तक ले जाए तो इस बात की बहुत संभावना है कि फिर वो अलग न हो। इसके पीछे सबसे बड़ी वजह है विवाह के साथ पैकेज के रूप में आई समझदारी और सहनशीलता। और इसका एक दूसरा कारण भी है कि विवाह किसी भी अफेयर से बड़ा संबंध होता है। हम किसी छोटे-बड़े कारण के चलते अफेयर को ब्रेक-अप में बदल सकते हैं, लेकिन उन्हीं कारणों के चलते विवाह को तलाक में बदलने से पहले कई बार सोचते हैं। हर इंसान अपने विवाह संबंध को बचाने के लिए जी-जान लगाता है और समय के साथ विवाहित पुरुष-स्त्री यह जानने लगते हैं कि कोई भी संबंध इतना कमज़ोर नहीं होता जो छोटे-छोटे झगड़ों की भेंट चढ़ जाए। लेकिन यह समझने के लिए सहनशीलता चाहिए, और वो आती है विवाह के बाद ही।
प्रेम की धुरी पर घूमता है संबंधों का चक्का
विवाह संबंध इंसान को परिपक्व बनाता है। आपको अपने आस-पास कई वर्गों के, कई लोग यह कहते मिल जाएंगे कि जो प्रेम-संबंध उन्होंने विवाह के बाद महसूस किया वो पहले कभी महसूस नहीं किया। नोबल पुरस्कार विजेता ब्रिटिश लेखक हैरल्ड पिंटर अपनी पत्नी के लिए लिखते हैं- 
"मर गया था और ज़िन्दा हूं मैं 
तुमने पकड़ा मेरा हाथ 
अंधाधुंध मर गया था मैं 
तुमने पकड़ लिया मेरा हाथ 
तुमने मेरा मरना देखा 
और मेरा जीवन देख लिया 
तुम ही मेरा जीवन थीं 
जब मैं मर गया था 
तुम ही मेरा जीवन हो 
और इसीलिए मैं जीवित हूं...." 
ऐसी बात अपनी पत्नी से गहन प्रेम-संबंध के बाद ही किसी लेखक की कलम से निकल सकती है। कुछ ऐसा ही प्रेम-संबंध इमरोज़ ने अमृता प्रीतम के लिए महसूस किया। वो अपने संस्मरण में कहते हैं, कोई भी रिश्ता बांधने से नहीं बंधता। प्रेम का मतलब होता है एक-दूसरे को पूरी तरह जानना, एक-दूसरे के जज़्बात की कद्र करना और एक-दूसरे के लिए फ़ना होने का जज़्बा रखना। अमृता और मेरे बीच यही रिश्ता रहा। पूरे 41 बरस तक हम साथ-साथ रहे। इस दौरान हमारे बीच कभी किसी तरह की कोई तकरार नहीं हुई। यहां तक कि किसी बात को लेकर हम कभी एक-दूसरे से नाराज़ भी नहीं हुए।
इमरोज़ आगे कहते हैं कि अमृता के जीवन में एक छोटे अरसे के लिए साहिर लुधियानवी भी आए, लेकिन वह एकतरफ़ा मुहब्बत का मामला था। अमृता साहिर को चाहती थी, लेकिन साहिर फक्कड़ मिज़ाज था। अगर साहिर चाहता तो अमृता उसे ही मिलती, लेकिन साहिर ने कभी इस बारे में संजीदगी दिखाई ही नहीं। 
एक बार अमृता ने हंस कर मुझसे कहा था कि अगर मुझे साहिर मिल जाता, तो फिर तू न मिल पाता। इस पर मैंने कहा था कि मैं तो तुझे मिलता ही मिलता, भले ही तुझे साहिर के घर नमाज़ अदा करते हुए ढूंढ़ लेता। मैंने और अमृता ने 41 बरस तक साथ रहते हुए एक-दूसरे की प्रेज़ेंस एंजॉय की। हम दोनों ने खूबसूरत ज़िंदगी जी। दोनों में किसी को किसी से कोई शिकवा-शिकायत नहीं रही। मेरा तो कभी ईश्वर या पुनर्जन्म में भरोसा नहीं रहा, लेकिन अमृता का खूब रहा है और उसने मेरे लिए लिखी अपनी आख़िरी कविता में कहा है- मैं तुम्हें फिर मिलूंगी। अमृता की बात पर तो मैं भरोसा कर ही सकता हूं।
संबंधों का सागर विशाल है। एक कुशल और अच्छा नाविक वही है जो इस सागर में अपनी नाव तमाम हिचकोलों के बावजूद पार ले जाकर माने। और वो जब भी इस सागर में डुबकी लगाए तो संबंधों का सबसे क़ीमती मोती ही निकालकर लाए। न केवल निकाले बल्कि उसे सहेज कर भी रख सके, उसकी हिफ़ाज़त करे, उसका सम्मान करे। 
-माधवी

(दैनिक भास्कर की मासिक पत्रिका 'अहा ज़िंदगी' के जुलाई अंक में प्रकाशित, चित्र सुधा बरशीकर के सौजन्य से)

Saturday, July 7, 2012

परदादा को याद करते हुए

पुराने ज़माने में लोग आज के मुक़ाबले जल्दी विवाह बंधन में बंध जाते थे। ज़ाहिर है, लोग अपने पोते-पोतियों, यहां तक कि उनके बच्चों को देखकर दुनिया से विदा लेते थे। लेकिन गुलेरी जी न तो हमें देख पाए और न हम उन्हें। 39 वर्ष की अल्पायु में गुलेरी जी ने संसार त्याग दिया। लेकिन मुझे प्रतीत होता है कि वे भले ही सशरीर हमारे साथ नहीं हैं, उनकी देह हमें छोड़ गई है, लेकिन उनका प्रभामंडल और उनका वरदहस्त हमेशा हमारे परिवार पर रहा है। मेरे दादा योगेश्वर शर्मा गुलेरी उनके पुत्र के रूप में, मेरे पिता विद्याधर शर्मा गुलेरी उनके पौत्र के रूप में जाने जाते रहे.... मैं और मेरा बड़ा भाई विकास उनके प्रपौत्री और प्रपौत्र के रूप में। यह हमारे लिए गौरव की बात रही है। 
जब हम बच्चे कहानी सुनने-समझने लायक हुए तो उसने कहा था, बुद्धू का कांटा और सुखमय जीवन हमें घुट्टी की तरह पिलाई गई। यक़ीनन, बड़ी मीठी लगती थी यह घुट्टी! न जाने कितनी बार इन कालजयी रचनाओं को पढ़ा है और हर बार गुलेरी जी और उनकी विद्वत्ता अवचेतन में रहे हैं।
यूं तो गुलेरी जी की कार्यस्थली जयपुर रही, लेकिन उनका पैतृक आवास गुलेर गांव में है। चन्द्र भवन ...जो उनके नाम और रचनाकर्म से आलोकित है। जहां कालान्तर में मुझे भी पलने-बढ़ने और रहने का सौभाग्य मिला। गुलेरी जी से विरासत में बहुत कुछ पाया है। घर में उनके कई हस्तलिखित पत्र, पांडुलिपियां, तसवीरें, पोर्ट्रेट्स और उनके रोज़मर्रा के इस्तेमाल का सामान मिला है जो किसी धरोहर से कम नहीं।
एक वाक़या याद आ रहा है बचपन का... एक दफ़ा दिल्ली से एक बड़े लेखक हमारे घर, गुलेर आए। उस वक्त मैं बहुत छोटी थी। उनका नाम तो मुझे याद नहीं लेकिन उन्होंने घर आकर गुलेरी जी की तसवीरों, उनके पत्रों, उनकी वस्तुओं को बड़े मनोयोग से देखा। गुलेरी जी से मुत्तालिक बहुत-सी बातें कीं मां-पापा के साथ। जाते-जाते उन्होंने हमारे कच्चे घर को नमन किया और देहरी से मिट्टी उठाकर माथे पर लगाई। उस वक़्त मुझे एहसास हुआ कि गुलेरी परिवार में जन्म लेने का क्या महत्व है।
एक सुखद संयोग यह हुआ कि 1994 में हरिपुर में, जो गुलेर से दो किलोमीटर दूर है, गुलेरी जी के नाम पर एक कॉलेज की स्थापना हुई। श्री चन्द्रधर गुलेरी डिग्री महाविद्यालय... जहां मैंने बड़े गर्व से दाख़िला लिया। ग्रेजुएशन वहीं से की। उसके बाद पारिवारिक और व्यावसायिक बाध्यताओं के चलते मुझे दिल्ली जाना पड़ा। दिल्ली में आगे की पढ़ाई और फिर दूरदर्शन, सहारा समय जैसे न्यूज़ चैनलों के साथ काम किया। इस दौरान अपने पैतृक गांव और राज्य से तो नाता टूटा ही, साहित्य से भी नाता टूटता-सा लगा। क़रीब सात साल तक पत्रकारिता की नौकरी में जीवन यंत्रचालित ही रहा। गुलेरी जी की साहित्यिक परंपरा को पापा ने कुछ हद तक आगे बढ़ाने की कोशिश की थी। उन्होंने गुलेरी जी पर शोध किया, गुलेरी साहित्य शोध संस्थान की स्थापना की, कई किताबें लिखीं। लेकिन मैं थी कि चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रही थी।
2009 में मेरा विवाह हुआ और मैं मुंबई आ गई। शादी पर पतिदेव ने मुझे उसने कहा था फ़िल्म की डीवीडी तोहफ़े के रूप में दी। उन्हें भान था कि मेरे लिए इससे अनमोल और यादगार भेंट और कोई नहीं हो सकती। मुंबई आने के बाद छह महीने तक वही न्यूज़ चैनल की मशीनी ज़िंदगी चलती रही। लेकिन एक दिन मन कड़ा करके उस ज़िंदगी को अलविदा कह दिया। इस्तीफ़े के बाद चिंतन-मनन का समय मिला तो लिखने-पढ़ने का सिलसिला भी फिर शुरू हुआ। लेकिन इस बार यह लेखन किसी चैनल की मांग पर नहीं बल्कि नितांत मेरे अपने लिए था। शुरुआत कविता लेखन से हुई। फिर लेख-आलेख व संस्मरण लिखने शुरू किए जो प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे। 
मुंबई में ही कवि अनूप सेठी से मुलाक़ात हुई। अनूप जी के ज़रिए हिमाचल की साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों से मैं फिर वाबस्ता हुई, और अपनी जड़ों के प्रति मेरा प्रेम एक बार फिर हिलोरें लेने लगा। हाल में उन्होंने ‘हिमाचल मित्र’ के लिए गुलेरी वंश वृक्ष बनाने का आग्रह किया और यह ऐतिहासिक, ज़िम्मेदाराना काम करते हुए मैं फूली नहीं समाई।
फिलवक़्त उसने कहा था ब्लॉग का संचालन कर रही हूं, जो पूजनीय परदादा जी को समर्पित है। निकट भविष्य में गुलेरी जी पर एक वेबसाइट शुरू करने की योजना है। जितनी साहित्य रचना गुलेरी जी ने की, उसका अंशमात्र भी नहीं कर पाई हूं.... लेकिन कलम चल रही है तो लगता है कि कहीं-न-कहीं उनकी प्रपौत्री होने को जस्टीफाई कर पा रही हूं। उम्मीद है, और इच्छा भी कि कम-से-कम एक कहानी तो ऐसी लिखूं जो गुलेरी जी की कहानियों का आभास-मात्र ही पढ़ने वालों को दे जाए। 
-माधवी
(यह संस्मरण गुलेरी जयंती के अवसर पर फ़िल्मकार विवेक मोहन द्वारा शिमला में पढ़ा गया।)
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