(परसों, 7 जुलाई को गुलेरी जी की 132वीं जयंती थी. परदादा को याद करते हुए
यहां उनकी एक व्यंग्यात्मक कविता, जो 'सरस्वती' पत्रिका में साल 1907 में प्रकाशित हुई थी.)
करके हम भी बी. ए. पास
हैं अब ज़िलाधीश के दास
पाते हैं दो बार पचास
बढ़ने की रखते हैं आस
ख़ुश हैं मेरे साहिब मुझ पर
मैं जाता हूं नित उनके घर
मुफ़्त कई सरकारी नौकर
रहते हैं अपने घर हाज़िर
पढ़कर गोरों के अख़बार
हुए हमारे अटल विचार
हैं अब ज़िलाधीश के दास
पाते हैं दो बार पचास
बढ़ने की रखते हैं आस
ख़ुश हैं मेरे साहिब मुझ पर
मैं जाता हूं नित उनके घर
मुफ़्त कई सरकारी नौकर
रहते हैं अपने घर हाज़िर
पढ़कर गोरों के अख़बार
हुए हमारे अटल विचार
अंग्रेज़ी में इनका सार
करते हैं हम सदा प्रचार
वतन हमारा है दो-आब
करते हैं हम सदा प्रचार
वतन हमारा है दो-आब
जिसका जग में नहीं जवाब
बनते-बनते जहां अजाब
बन जाता है असल सवाब
ऐसा ठाठ अजूबा पाकर
करें किसी का क्यों मन में डर
बनते-बनते जहां अजाब
बन जाता है असल सवाब
ऐसा ठाठ अजूबा पाकर
करें किसी का क्यों मन में डर
खाते-पीते हैं हम जी भर
बिछा हुआ रखते हैं बिस्तर
बिछा हुआ रखते हैं बिस्तर
हमें जाति की ज़रा न चाह
नहीं देश की भी परवाह
हो जावे सब भले तबाह
हम जावेंगे अपनी राह।
-चंद्रधर शर्मा गुलेरी
नहीं देश की भी परवाह
हो जावे सब भले तबाह
हम जावेंगे अपनी राह।
-चंद्रधर शर्मा गुलेरी
सुन्दर .......
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति !
ReplyDeleteआभार !
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बहुत सुन्दर कविता है ये!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ।Seetamni. blogspot. in
ReplyDeleteलंबी कविता है गुलेरी जी यह तो कुछ अंश हैं|द्विवेदी युग की
ReplyDeleteखड़ी बोली हिंदी का सुंदर स्वरूप निश्चित ही गुलेरी जी की
दूरदृष्टि का परिचायक है
बढ़िया.
ReplyDeleteवाह, बहुत बढ़िया!
ReplyDelete1907 की कथा आज भी है, शास्वत है
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