Saturday, December 10, 2011

लौटने की गुंजाइश बनी रहे


पिछले दिनों एक शॉर्ट फ़िल्म देखी, जिसका नाम था- एएसएल प्लीज़
। कहानी कुछ यूं है... एक लड़का और लड़की चैट-फ्रेंड्स हैं। कंप्यूटर पर दिन-रात चैटिंग करते हैं। यह चैटिंग धीरे-धीरे रोमांस में बदल जाती है। एक दिन लड़का, लड़की को प्रोपोज़ करता है और फिर उससे मिलने की ज़िद करता है। लड़की ब्लाइंड डेट के लिए राज़ी हो जाती है। 
किसी शॉपिंग कॉम्प्लेक्स के अंदर, सायबर कैफे के एक केबिन में लड़की उसी लड़के का इंतज़ार कर रही है। हाथ में फूल लिए लड़का बेसब्री से शॉपिंग कॉम्प्लेक्स पहुंचता है। उधर लड़की भी उससे मिलने के लिए उतनी ही बेताब है। लड़का केबिन का दरवाज़ा खटखटाता है। दरवाज़ा खुलता है और इसी के साथ दोनों के होश फाख़्ता हो जाते हैं। लड़का और लड़की सगे भाई-बहन हैं। अपने-अपने कमरों में बैठकर वो नकली नामों से एक-दूसरे से फ्लर्ट कर रहे थे।
फिल्म में दोनों किरदारों के होश जितने फाख्ता हुए, उससे कहीं ज़्यादा होश मेरे उड़ गए। एक सच- एक कड़वा सच- सवाल बनकर मुंह बाये सामने आ खड़ा हुआ। हम किस रास्ते पर हैं, कहां पहुंच रहे हैं? तकनीक का जितनी तेज़ी से विकास हो रहा है, उससे कहीं ज़्यादा तेज़ी से बदल रहे हैं हम। होड़ सी लगी है और इस होड़ में हमारी पहचान पीछे छूट गई है। अब हम वो नहीं जो असल में हैं। हमारी पहचान अब कम्प्यूटर स्क्रीन पर चमक रहे एक फंकी चैट नेम की तरह सीमित होकर रह गई है। बीते कुछ सालों में सब इतनी तेज़ी से बदला है तो यह सवाल वाजिब लगता है। जीने के रंग-ढंग बदल गए हैं, जीवन-मूल्यों में परिवर्तन आ गया है। प्रकृति बदली है, प्राथमिकताएं बदली हैं और साथ ही इंसान की सोच भी। बदलना वक़्त की मांग है। बिल्कुल है और वक़्त के साथ बदलने में समझदारी भी है। बदले नहीं और वक़्त के साथ नहीं चले तो पीछे छूट जाएंगेओल्ड फैशन्ड कहलाएंगे। लेकिन बदलने की दिशा क्या होगी, यह तय करना भी लाज़िमी है। 
यह है 21वीं सदी मेरी जान
हम जेट ऐज में जी रहे हैं। जैसे बिजली की एक कौंध ने रातो-रात सब बदल डाला है। नित नई तकनीकें ईज़ाद हो रही हैं। ज़िंदगी को आसान बनाने की क़वायद चल रही है। कपड़ों के लिए फुली ऑटोमेटिक वॉशिंग मशीन, बर्तनों के लिए डिशवॉशर, खाना पकाने को माइक्रोवेव, पानी गरम करने को इन्स्टेंट गीज़र और साफ-सफाई के लिए वैक्यूम क्लीनर है। ज़रा-सा हाथ घुमाया और घर के सारे काम ख़त्म। बाहर जाना है तो कार तैयार है। एक शहर से दूसरे शहर के लिए फ्लाइट है। कभी लग़्जरी माने जाने वाले ये साधन अब हरेक की पहुंच में हैं। फिर कौन रेलगाड़ी और बस में वक़्त बर्बाद करता फिरे! शरीर में हरक़त भले न हो, बैठे-ठाले भले ही जंग लग जाए.. लेकिन इसकी फिक्र किसे है। जिम जाकर फॉर्म भरिए, फीस चुकाइए, फिर भागते रहिए ट्रीडमिल की न ख़त्म होने वाली सड़क पर।
खुली रहे इंटरनेट की खिड़की
कंप्यूटर के इस दौर में जीवन की राहें आसान लगने लगी हैं। रही-सही कसर इंटरनेट ने पूरी कर दी है। इंटरनेट नहीं जैसे शरीर का कोई अंग हो। हर वक़्त इंटरनेट का साथ ज़रूरी है, नहीं तो ज़िंदगी अधूरी है। दो-चार दिन इससे दूर रहना पड़े तो लगता है कुछ मिसिंग है। इंटरनेट पर एक क्लिक करो तो वसुधैव कुटुम्बकम की कहावत साकार हो जाती है। समूची धरती एक घर बन गई है। विदेश में बसे अपने दोस्तों या रिश्तेदारों से जब चाहे तब बात कर लो। बातों से मन न भरे तो वीडियो चैट है। सात समंदर पार से एक-दूसरे को लाइव देख लो। किसी अज़ीज़ की सालगिरह है तो झट से ई-कार्ड या ई-फ्लावर भेज दो। राहत की एक और बात यह कि लंबी-लंबी लाइनों में खड़े रहने के दिन अब लद लिए। बिजली व फोन का बिल भरने या बैंक का कोई काम करने के लिए कहीं जाने की ज़रूरत नहीं, क्योंकि ये काम इंटरनेट पर घर बैठे-बैठे मिनटों में निपटाए जा सकते हैं। रेल, हवाई जहाज की बुकिंग करनी हो या रिश्ते के लिए मैट्रीमोनियल साइट पर विज्ञापन देना हो.. इंटरनेट बेशक अच्छा ज़रिया है। लेकिन वर्चुअल वर्ल्ड में तफरीह कर रहे हैं तो चौकन्ना रहने की उतनी ही ज़रूरत है, जितनी असल ज़िंदगी में है।
पैसा फेंको, तमाशा देखो
जीवन की दशा और दिशा अब बड़े-बड़े ब्रांड तय करने लगे हैं। मल्टीनेशनल कंपनियां सुझाती हैं कि हमें कहां रहना चाहिए, क्या पहनना चाहिए, क्या खाना चाहिए और क्या नहीं। पिछले दिनों मेरी एक दोस्त की शादी हुई। आंटी-अंकल ने शादी का पूरा ज़िम्मा एक वेडिंग प्लानर को दे दिया। उस प्लानर ने शादी के जोड़े से लेकर वरमाला तक का बेहतरीन चुनाव किया। सब-कुछ इतनी आसानी से हो गया कि लगा, वक़्त वाकई बदल चुका है। पहले घर के बड़े-बूढ़े, रिश्तेदार और पड़ोसी मिलकर शादी-ब्याह की ज़िम्मेदारी उठाते थे, लेकिन अब वेडिंग प्लानर जैसे कॉन्सेप्ट आ चुके हैं।
क्रैश शब्द से मैं पहली बार महानगर में परिचित हुई। क्रैश यानी बच्चों की देखभाल करने वाली ऐसी जगह, जहां नौकरीपेशा लोग अपने छोटे बच्चों को छोड़कर काम पर जा सकते हैं। फुल टाइम मेड भी एक विकल्प है। महंगाई सुरसा के मुंह की तरह बढ़ रही है। ऐसे में पति-पत्नी, दोनों कमाने वाले न हों तो एक अच्छा लाइफस्टाइल अफोर्ड नहीं कर सकते। वहीं कुछ लोग ऐसे हैं जो मानते हैं कि मियां-बीवी की बंधी-बंधाई तनख़्वाह से आजकल गुज़ारा नहीं होता, एक्स्ट्रा इनकम ज़रूरी है। ऐसे में अगर पैसा दोगुना-चौगुना करने वाली स्कीमों के पीछे लोग बिना जोखिम की जानकारी लिए भागते हैं तो बड़ी बात नहीं है। हाल में ऑनलाइन सर्वे के नाम पर एक कंपनी ने जनता से करोड़ों वसूल लिए, यह आश्वासन देकर कि आने वाले समय में पैसा कई गुना हो जाएगा। मामला सरासर धोखाधड़ी का निकला जिसने छोटे-बड़े सभी निवेशकों की नींद उड़ा दी। अमेरिका में कई कंपनियां हैं जो ऐसे ऑफर देती हैं, इन्हें पोन्ज़ी स्कीम कहते हैं। लेकिन अपने देश में इतना बड़ा ऑनलाइन घोटाला पहली बार सुनने को मिला है।
आम घोटालों की आदत हमें पड़ चुकी है। पहले भ्रष्टाचार और बेईमानी के ख़िलाफ़ लोग एकजुट होते, आवाज़ उठाते, क्रान्तियां करते। अब आए दिन स्कैम होते हैं, इसीलिए हमारे भीतर रोष नहीं है। या कहें कि अब असर नहीं पड़ता क्योंकि हम इम्यून हो चुके हैं। आम आदमी से वैसे भी किसी रिएक्शन की उम्मीद रखना बेमानी है.. वो क्रान्ति का बिगुल बजाए या जैसे-तैसे अपने परिवार का पेट पाले? ज़ाहिर बात है पहले परिवार और दो जून की रोटी है।
फंडा स्टेटस सिंबल का
एक टेलीविज़न ब्रांड का विज्ञापन आपको याद होगा, जिसमें पड़ोसी जलते रहें और मालिक फूला न समाए जैसा संदेश था। यानी, अपनी किसी चीज़ पर आपको उतना ही अभिमान है, जितना उसे देख आपके पड़ोसी को जलन होती है। उसकी साड़ी मेरी साड़ी से सफेद कैसे.. यह अब विज्ञापन नहीं, एक आम ख़याल है। पड़ोसी कार ख़रीदता है तो देखा-देखी दूसरा भी ख़रीदना चाहता है। यह इंसान की प्रवृत्ति है। रैट रेस है, जिसमें न चाहते हुए भी शामिल होना पड़ता है। पैसे कमाने के लिए दिन-रात भागना पड़ता है, स्टेटस का ख़याल जो रखना है। बड़ा फ्लैट और लग़्जरी गाड़ी अब स्टेटस सिंबल हैं। इनके होने से आप हाई-प्रोफाइल कहलाते हैं। हैरानी की बात है कि स्टेटस सिंबल कही जाने वाली ये चीज़ें बच्चों के दिलो-दिमाग पर भी हावी हो चली हैं। आज का यूथ इससे इतर कुछ नहीं सोचता। मेरी बिल्डिंग के कुछ लड़के जो अभी कॉलेज में पढ़ते हैं, यही सपना लेकर जी रहे हैं कि उनके पास जल्द-से-जल्द एक बड़ा फ्लैट, कार और शानदार नौकरी हो।
महंगाई डायन खाय जात है...
पिछले कुछ सालों में जिस दर से महंगाई बढ़ी है, उसी दर से रहन-सहन का स्तर भी बढ़ा है। बाज़ार ने आश्चर्यजनक रूप से हमारी जीवनशैली बदल दी है। मेले की जगह मॉल ने ले ली है। छोटे बाज़ार पर बड़ा बाज़ार हावी है। मॉल कल्चर ने जैसे हमारी नब्ज़ पकड़ी है। महानगरों में कुकरमुत्तों की तरह मॉल उग आए हैं। जहां देखो बस मॉल ही नज़र आते हैं। महानगर ही क्यों, छोटे-मोटे शहरों में भी मॉल की महिमा फैल रही है और हम अभिभूत हैं इस महिमा से। हों भी क्यों न, समय और मेहनत जो बचती है। कुछ ख़रीदने के लिए यहां-वहां भटकने की आवश्यकता नहीं क्योंकि अब घर के सामने मॉल है और उसमें हर वो चीज़ जो हमें चाहिए। इधर-उधर जाना कौन चाहता है! कुछ भी ख़रीदना हो, सीधे मॉल का रुख़ कर लो। यह दीगर बात है कि मॉल में ज़रूरत से ज़्यादा ख़रीदारी हो जाती है। चम्मच लेने जाओ तो कड़ाही आ जाती है। 200 की जगह 2000 रुपए की ख़रीदारी हो जाती है। कैश कम पड़ता है तो डेबिट और क्रेडिट कार्ड तो है ही।
मॉल के माहौल में लोग ख़ुश रहने लगे हैं। कपड़े-लत्ते, रसोई का सामान, बच्चों के लिए प्ले कॉर्नर, यहां तक कि सिनेमा हॉल भी... सब एक छत के नीचे है। मॉल में जाना जैसे किसी पिकनिक पर जाना हो गया है। घर लौटकर खाना बनाने की इच्छा न हो, या लंबे-चौड़े मॉल में घूमते-घूमते भूख लगे तो फूड कोर्ट है। बच्चे साथ हों तो बचने की कोई सूरत नहीं। पिज्जा, बर्गर या कोई अन्य फास्ट फूड ऑर्डर करना पड़ेगा। बड़े मॉल जेब पर भारी हैं तो डेली-डिस्काउंट वाले मॉल भी हैं, जहां किसी-न-किसी चीज़ पर रोज़ाना छूट मिलती है। बाय वन गेट वन फ्री का ऑफर है। जो सामान हम आम दुकान से ख़रीदते हैं, वही अगर ठीक-ठाक दाम पर मॉल में मिलता है तो क्या हर्ज़ है। बहुतों की सोच यही होगी। मॉल के माहौल में जो मनोरंजन होता है वो भी ज़रूरी लगने लगा है। पहले लोग हाथ में पैसे लेकर बाज़ार जाते और झोला भरकर सामान लाते थे। अब महंगाई के दौर में पर्स भरकर पैसे ले जाने पर भी मुट्ठीभर सामान के साथ लौटना पड़ता है।
फैशन का है जो जलवा
पिछले दिनों न्यूज़ चैनल पर दिल्ली यूनिवर्सिटी की एक ख़बर देखी जिसमें मॉडर्न कपड़ों में लिपटे छात्र कैम्पस में घूम रहे थे। एटीट्यूड के साथ हाथों में हाई-एन्ड मोबाइल पकड़े छात्र, स्टूडेंड कम और मॉडल ज़्यादा लग रहे थे। कॉलेज जैसे कोई रैम्प हो और वो फैशन परेड का हिस्सा। हिंग्लिश में बात करता क्राउड, साही जैसे खड़े बाल, लाल-भूरे रंगों में पुती ज़ुल्फें तो कहीं मोबाइल फोन पर बजता डैडी मुझसे बोला तू गलती है मेरी गाना… मेरे लिए यह दृश्य किसी क्लचरल शॉक से कम नहीं। लगा, फैशन की परिभाषा जैसे एकाएक बदल गई हो।
आपसी रिश्तों के मायने बदले हैं। मानवीय संवेदनाएं कुंद पड़ गई हैं। संबंधों में अब पहले जैसी गरमाहट कहां! सब बनावटी लगने लगा है। सिल्वर-स्क्रीन के सितारों को ही देख लीजिए। प्रेमी-प्रेमिका पहले क़रीब आते हैं, एक-दूसरे के नाम का टैटू गुदवाते हैं और रिश्तों में खटास आते ही टैटू हटवा देते हैं।
रियल लाइफ में लौटें तो बदलाव पारिवारिक ढांचों में भी आया है। सबको अपना स्पेस चाहिए। जॉइंट फैमिली न्यूक्लियर हो गई है। संयुक्त परिवारों की जगह संकुचित परिवार ले चुके हैं। बड़े-बड़े परिवार अब सिर्फ़ टीवी पर डेली सोप में दिखते हैं।
दिल ढूंढता है फिर वही...
बदलते दौर ने हमें सहूलियत तो दी है लेकिन एक कमी का एहसास भी कराया है। सहज, सामान्य जीवन की कल्पना धूमिल होती जा रही है। चौबीस घंटे किसी प्रेशर में जीने की मजबूरी झेल रहे हैं हम। एक-दूसरे के लिए वक़्त नहीं है, जबकि दिन भी वही है और दिन के घंटे भी वही। आज हर इंसान इसी तकिया कलाम के साथ मिलता है कि क्या करें टाइम नहीं मिलता। रिश्तेदार तो दूर, दोस्तों और पड़ोसियों से बात करने का भी वक़्त नहीं है। हम सोशल एनिमल हैं लेकिन ये जज़्बा हक़ीकत में कम और सोशल नेटवर्किंग साइट पर ज़्यादा दिखता है। अपनों की बात तब सुनें जब ट्विटर का शोर कम हो, अपनों का चेहरा तब पढ़ें जब फेसबुक से नज़र हटे।
मेरे एक जानकार विटामिन-डी की कमी से ग्रस्त हैं। दवाइयों की लंबी-चौड़ी लिस्ट के साथ उन्हें धूप में बैठने की हिदायत मिली है। धूप में बैठना तो दूर, उनके पास ठीक से खाना खाने का भी वक़्त नहीं। घर, गाड़ी और ऑफिस.. सब एयरकंडीशंड। ऐसे में एयर कंडीशनर की आदत होना स्वाभाविक है। 24 घंटे एयरकंडीशन्ड माहौल में जीने वाले ज़रा-सा बाहर निकल जाएं, छींकने लगते हैं। उनका शरीर मौसम के मुताबिक ढलने की क्षमता खोता जा रहा है। आजकल सब-कुछ रिमोट के कंट्रोल में है। लेकिन सोचने वाली बात है कि बदलते वक़्त के साथ हम कहीं ऐसी मशीन न बन जाएं, जिसका कंट्रोल भी केवल रिमोट से होने लगे। बदलाव की आंधी में उड़ते-उड़ते हम एक दिन इतनी दूर न निकल जाएं कि फिर लौटना मुश्किल हो।  
-माधवी

(दैनिक भास्कर की मासिक पत्रिका 'अहा ज़िंदगी' के विशेष वार्षिक अंक, 2011 में प्रकाशित
)

18 comments:

  1. आज लोगों की जो मनोवृति है उस पर सधा हुआ लेख ...

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  2. उड़ने दो अभी लोगों को ....तीसरा विश्व युद्ध तीर कमान और बरछी भाले के साथ लड़ा जाएगा.. यह तय है.. ! यह विस्फोट काल है..इससे बचने के लिए भीतर की तैयारी आवश्यक है..बाहरी तैयारियां काम नही आएँगी.. !

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  3. सुख और सुविधा का सुंदर विश्लेषण.

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  4. ये फिल्‍म मैंने भी देखी है। फेसबुक पर ही।
    सच में होश उडा देने वाला।
    अपने बच्‍चों को इंटरनेट का इस्‍तेमाल करने की खुली छूट देने वाले माता पिता के लिए सबक है इस फिल्‍म में।
    सुंदर लेख।
    बढिया चिंतन

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  5. मैंने भी वो शोर्ट फिल्म देखि थी...मैं भी हिल गया था देख के..
    बहुत बड़ा सन्देश देती है वो फिल्म..

    और जहाँ तक बात है लोगों के व्यस्त होने का..तो मुझे लगता है कोई इतना व्यस्त तो हो ही नहीं सकता की दोस्तों या रिश्तेदारों को भूल जाए..लेकिन फिर भी आजकल लोगों के पास यही बहाना रहता है..'क्या करें यार, वक्त ही नहीं मिलता'..

    बेहतरीन पोस्ट!!

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  6. आधुनिकता की अंधी दौड निस्संदेह नुक्सानदायक है, तकनीक का प्रयौग सीमाओं में ही अच्छा है

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  7. आदमी मशीन बनता जा रहा है |संवेदनाये कम होती जा रहीं हैं स्तुति अच्छी लगी बहुत बहुत आभार | मेरे नये पोस्ट पर आपकी प्रतीक्षा है |
    |

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  8. प्रभावशाली अभिवयक्ति.....

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  9. ज़िंदगी को आसान बनाने की क़वायद ही इसे क्लिष्ट बना रही है. बहुत खूब लिखा है.

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  10. bahut hi vicharneey lekh..technology se jitne fayde utne hi nuksan bhi..

    welcome to my blog :)

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  11. बहुत सुन्दर प्रस्तुति ..!
    मेरे ब्लॉग पे आपका स्वागत है ..!

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  12. सशक्त लेखन/विश्लेषण....
    सादर...

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  13. आधुनिकता की दौड के परिणाम का बहुत विषद और सशक्त विश्लेषण..आभार

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  14. वर्तमान सदी का हतप्रभ चेहरा ...!!!

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  15. i didnt get the aha zindagi issue yet but yes rightly said taknik so many times taklif bankar samne aai hai

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  16. "अपनों की बात तब सुनें जब ट्विट्टर का शोर कम हो.................."

    बहुत ही सशक्त आलेख, सही नब्ज़ को पकड़ा है आपने

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  17. Nice article except for the 1st part about the movie where you posted almost the complete script. souldn't post spoilers like that

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