Wednesday, November 9, 2011

हर ख़्वाहिश पे दम निकले

(बतौर निर्देशक पंकज कपूर की पहली फ़िल्म मौसम रिलीज़ हुई तो उनके मन के मौसम का हाल जानने हम उनके घर जा पहुंचे। बातचीत की झड़ी शुरू हुई तो रुकने का नाम न ले। ज़िंदगी की किताब खुलती गई और उसमें नज़र आए मौसम के सारे रंग। कहीं बारिश की हल्की नमी महसूस हुई तो कहीं बसंत की चुलबुली बयार। कहीं ख़ुशनुमा यादों की छांव में टहलने का मौक़ा मिला तो कहीं ज़िंदगी के सख़्त लम्हों की कड़ी धूप से भी वास्ता पड़ा।) 

बचपन कहां और कैसे बीता? 
पंजाब के लुधियाना शहर में पैदा हुआ, वहीं पला-बढ़ा। पूरा बचपन पंजाब में गुज़रा। लुधियाना के न्यू हाई स्कूल और कुंदन विद्या मंदिर में पढ़ाई हुई। स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद वहां के आर्य कॉलेज में दाखिला लिया। मेरे पिता कॉलेज में प्रोफेसर थे। बतौर प्रिंसीपल वो रिटायर हुए। मां गृहिणी थीं। बस, इससे ज़्यादा क्या बताऊं अपने बचपन के बारे में।
बचपन की कोई ख़ास याद
?
जिस माहौल में मैं पला-बढ़ा, उसकी याद दिमाग़ में आज भी कौंधती है। बहुत-सी ख़ुशगवार यादें हैं मेरे ज़हन में। सबसे पहले तो मेरे माता-पिता जिन्होंने मुझे हर तरह से सहयोग दिया। मैं बहुत ख़ुशकिस्मत हूं कि मां-बाप ने हर उस कार्य में मेरा साथ दिया जो मैंने करना चाहा। उसके अलावा, कुछ बहुत अच्छे दोस्त.. स्कूल और कॉलेज के दिनों के। हां, मेरे अध्यापक भी मुझे याद आते हैं जिन्होंने मेरे जीवन को बनाने में योगदान दिया। जहां आज मैं हूं, वहां पहुंचने में उनका बड़ा सहयोग रहा है।

अभिनय के प्रति रुझान कब हुआ
?
अगर कहूं कि मैं बचपन से ही अभिनय करता था, तो यह बड़ा घिसा-पिटा जवाब होगा... लेकिन यह जवाब सही है। इसकी शुरुआत मेरी मां ने कराई थी। घर में ही हम छोटे-मोटे नाटक कर लिया करते थे। आस-पड़ोस के बच्चे इकट्ठे हो जाते थे, और ऐसे ही टाइम पास के लिए नाटक करते थे। मेरी मां हमें नाटक करवा दिया करती थीं। फिर जब स्कूल पहुंचा तो वहां पर नाटक करने लगे, मोनो एक्टिंग करने लगे। भाषण प्रतियोगिताओं में हिस्सा लिया। कॉलेज पहुंचकर भी यह सिलसिला जारी रहा। कॉलेज की ड्रामेटिक सोसायटी का मैं सचिव था। कॉलेज स्तर पर नाटक किए, यूथ फेस्टिवल्स में हिस्सा लिया। उसी दौरान सोच लिया कि मुझे अभिनय का रास्ता चुनना है, एक्टिंग को ही अपना प्रोफेशन बनाना है। यह विचार मैंने काफी जल्दी कर लिया था। इसके बाद राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में चयन हुआ। वहां तीन साल तालीम हासिल की, और उसके बाद चार-पांच साल तक राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के रंगमंडल में बतौर अभिनेता कार्य किया। इस दौरान कई नाटक किए मैंने। रंगमंडल के बाद भी कई नाटक किए। मतलब, मेरे अभिनय का जो आधार बना वो था रंगमंच। 
...तो राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से मंझ कर निकला यह अभिनेता! 
हां, उस वक़्त राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निदेशक इब्राहिम अल्काज़ी थे। तीन साल की पढ़ाई और उसके बाद रंगमंडल में नौकरी के दौरान उनका बड़ा योगदान रहा मेरे जीवन में, ख़ासकर एक अभिनेता के रूप में परिपक्व होने में। मैं कह सकता हूं कि मां-बाप के बाद अगर किसी की अहम भूमिका मेरे जीवन में है, तो वो अल्काज़ी साहब की है। इसके अलावा, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के अन्य अध्यापकों का सहयोग भी रहा मुझे मांझने में। कितने बरस का था मैं, जब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में दाखिला लिया था। महज़ 19 बरस का! कच्ची उम्र का एक लड़का जो छोटे शहर से उठकर आया था। ऐसे में मुझे आकार मेरे अध्यापकों के मार्गदर्शन से ही मिला। वहां के माहौल और मेरे सहपाठियों व वरिष्ठों की संगत में भी मैंने बहुत कुछ सीखा। समझ लीजिए कि इस दौरान जो मुझे हासिल हुआ, उसी को बुनियाद बनाकर आगे बढ़ने की कोशिश जीवन में चलती रही है, और आज भी चल रही है। 
...और निर्देशन में पदार्पण कैसे हुआ? 
रंगमंच के दौरान निर्देशन करते ही थे। अभिनय के साथ-साथ कुछ नाटकों का निर्देशन भी किया। जब टीवी और फिल्म की दुनिया में कदम रखा तो दो टीवी धारावाहिकों का निर्देशन किया। फिर फिल्म बनाने का इरादा हुआ, तो फिल्म का निर्देशन किया। 
...कौन-कौन से धारावाहिकों का निर्देशन किया? 
मोहनदास बीए एलएलबी और दृष्टांत। 
करियर की शुरुआत में चुनौतियां रहती हैं। ज़ाहिर है आप जूझे होंगे उन चुनौतियों से... 
सबसे पहली जो चुनौती रहती है हमारे क्षेत्र में, वो यह कि आप रोटी का जुगाड़ कैसे करेंगे, रोज़मर्रा की ज़िंदगी का खर्च कैसे चलाएंगे। लेकिन मेरी तकदीर अच्छी थी, या कह लें कि ऊपर वाले का करम था कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से निकलते ही मुझे विद्यालय के रंगमंडल में नौकरी मिल गई... 22 साल की उम्र में एक नौकरी हाथ में थी। भले ही मुझे 500 रुपए मिलते थे महीने के, लेकिन उस वक़्त के हिसाब से गुज़ारा चलाने के लिए बहुत थे। उसके बाद जब फ्री-लांसिंग करने लगा रेडियो-टेलीविज़न के लिए, तो थोड़ी-बहुत कमाई हो जाती थी। फिर वापस रंगमंडल में आया तो तनख़्वाह थोड़ी बढ़ गई थी, ग्रेड भी बढ़ा था। उसके बाद फ़िल्मी दुनिया में कदम रखा। साल में एक-दो फ़िल्में होती थीं। बहुत कम पैसे मिलते थे.. कितने मिलते थे इसका ज़िक्र करना भी बेमानी है। मगर किसी भी तरह से, कुछ भी करके हम उसमें गुज़ारा कर लिया करते थे। मगर जज़्बा इस बात का था कि हम अच्छा काम करें.. ऐसा काम जिसे लोग सराहें, तारीफ करें... जिसे करने में मज़ा आए, और देखने में भी। बस, यही कोशिश हमेशा रही है। मैं यह नहीं कहता कि कोशिश हमेशा सफल ही हो जाती है.. लेकिन ऊपर वाले की ऐसी मेहरबानी रही कि 100 में से 80-85 फीसदी काम लोगों को पसंद आया।
जीवन का टर्निंग पॉइंट?
मेरे जीवन के दो टर्निंग पॉइंट रहे हैं। पहला तब था जब मैं
गांधी फ़िल्म में काम कर रहा था। उस दौरान राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल ने किसी ग़लतफहमी की वजह से मुझे यह फ़िल्म करने से मना कर दिया। हालांकि यह फ़िल्म मैंने विद्यालय की इजाज़त के बाद ही शुरू की थी, लेकिन आधी शूटिंग के बाद मुझे कह दिया गया कि आप फ़िल्म नहीं करेंगे। इस बात पर मुझे रंगमंडल से बर्ख़ास्त कर दिया गया। मुझे बहुत अजीब लगा कि पहले काम करने की इजाज़त दे दी गई और फिर अचानक कह दिया गया कि आप शूटिंग पर न जाएं। अब सोचना यह था कि रंगमंडल की नौकरी के बाद रोज़मर्रा की ज़िंदगी मैं कैसे चलाऊं। काम की तलाश में दिल्ली से मुंबई चला आया। मुंबई में थोड़ा-बहुत काम मिलने लगा। शुरुआत में कुछ अच्छे फ़िल्मकारों के साथ काम करने का मौक़ा मिला, लेकिन लोकप्रियता नहीं मिली। 

...और दूसरा मोड़? 
दूसरा मोड़ करमचंद सीरियल के ज़रिए आया। सीरियल लोकप्रिय हुआ तो इससे मेरी पहचान एक बड़े दर्शक वर्ग में बनी। दर्शक वर्ग, मतलब, फ़िल्म वाले नहीं बल्कि आम जनता। फ़िल्म वाले तो मुझे नाटकों की वजह से जानते थे। नाटकों से मेरी पहचान आम जनता में भी थी, पर वो दर्शक वर्ग सीमित था। लोग आते थे, नाटक देखकर चले जाते थे। लेकिन देश के आम आदमी के दिल तक मुझे करमचंद ने ही पहुंचाया। क्योंकि यह धारावाहिक दूरदर्शन पर आता था और राष्ट्रीय चैनल होने की वजह से इसकी पहुंच देश के बड़े हिस्से तक थी, सो मुझे अच्छी पहचान मिली। धारावाहिक लोकप्रिय हुआ, तो और ज़्यादा दर्शक इससे जुड़ते गए। इस वजह से फ़िल्मी दुनिया में भी पहचान बनी कि एक अभिनेता है जो अच्छा काम करता है और जिसे दर्शक भी पसंद करते हैं। 
बहुत से कलाकार पूर्णता पाने के लिए संघर्ष करते हैं लेकिन सफल नहीं हो पाते... आपके विचार से इसके पीछे क्या वजह है? 
इसका जवाब तो मैं नहीं दे सकता क्योंकि यह मुक़ाम तो मैंने भी हासिल नहीं किया है। अपने इस इरादे में मुझे अभी सफल होना है। अभी तक की अभिनय यात्रा में कई पड़ावों से मैं गुज़रा हूं, बहुत सारी चीज़ें है जो हासिल हुई हैं, लेकिन सफलता के जिस लक्ष्य को मैं छूना चाहता हूं या कामयाबी की जिस सीढ़ी तक मैं पहुंचना चाहता हूं, मुझे लगता है कि वो मिलना अभी बाकी है। परमात्मा ने बहुत कुछ दिया है मुझे, लेकिन जिस स्तर को छूने का सपना मैं देखता हूं, वहां पहुंचने के लिए अभी समय है। मुझे पता है कि मैं लालची हो रहा हूं और इसके लिए मैं क्षमा चाहता हूं, लेकिन बहुत कुछ करना अब भी बाकी है।
आप किसे आदर्श मानते हैं? 
कोई एक नहीं, दुनिया-जहान के अभिनेता हैं। या यूं कहें कि ऐसे लोग जिन्होंने रचनात्मकता के क्षेत्र में समर्पित होकर अपने लिए जगह बनाई है। मेरा आदर्श हर वो शख़्स है जिसने अपने मक़सद को पाने में ईमानदारी के उच्चतम स्तर को छुआ है। 
किसी व्यक्ति विशेष का नाम लेना चाहेंगे? 
किसी एक का नाम तो नहीं लूंगा, जैसा कि मैंने पहले कहा मुझ पर पिताजी का सबसे ज़्यादा प्रभाव रहा है। उसके बाद अल्काज़ी साहब का। इसके अलावा, मेरे आस-पास जो भी लोग अच्छा काम कर रहे हैं, उन सबसे मैं सीखता हूं, प्रेरणा लेता हूं। और ये बात मैं विनम्रता के नाते नहीं बल्कि दिल से महसूस करते हुए कह रहा हूं। 
जीवन में सकारात्मक सोच की क्या भूमिका है? 
आप कोशिश ही कर सकते हैं, और कुछ नहीं। अगर आप जीवन में सकारात्मक सोच रखते हैं तो इससे शरीर भी स्वस्थ रहता है और मन भी। मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए सही सोच बेहद ज़रूरी है। दूसरी बात यह कि इसके अलावा चारा भी क्या है। तीसरी बात यह कि अगर आप जीवन में सकारात्मक सोचते हुए ईमानदारी के साथ आगे बढ़ते हैं, तो ऐसा तो नहीं है कि बाधाएं नहीं आएंगी, वो तकदीर के हिसाब से आनी ही हैं। जीवन बना ही ऐसा है। कुछ भी परफेक्ट नहीं है, परफेक्शन को पाने की हम कोशिश ही कर सकते हैं। और जिस क्षेत्र में आप हैं, उसमें परफेक्शन तक पहुंचने की आपकी कोशिश और आपकी जद्दोज़हद, ईमानदारी और सही नज़रिए के साथ जारी रहनी चाहिए। अगर बात-बात में कमियां ढूंढेंगे, या शिकायत करते रहेंगे, या फिर यह मानने लगेंगे कि ऐसा तो हो ही नहीं सकता, तो यह पराजयवादी दृष्टिकोण है। अगर जीवन में जीत हासिल नहीं भी हो रही तो भी सही सोच के साथ मैदान-ए-जंग में डटे रहना चाहिए क्योंकि एक दिन ऐसा ज़रूर आएगा कि बेशक़ आपको वो मुक़ाम हासिल न हो जहां आप पहुंचना चाहते हैं, पर ऐसा कुछ ज़रूर मिलेगा कि लोग आपको पहचानें, आपकी मेहनत की कद्र करें। इसका एक ही तरीका है- ईमानदारी, मेहनत और सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़ना। 
किन बातों से सुक़ून मिलता है? 
अभिनय से, लेखन से, निर्देशन से... कुछ भी रचनात्मक करने में सुकून मिलता है। परिवार के साथ वक़्त गुज़ारने और उनके साथ छुट्टियां बिताना अच्छा लगता है। और कई बार तो बिना वजह हंसने से राहत मिलती है।
नए ज़माने की हवा में क्या अच्छा लगता है?
हवा तो हमेशा ही अच्छी होती है। बस, उम्र के साथ थोड़ा तालमेल बिठाना होता है। मैं समझता हूं कि हरेक चीज़ का एक समय होता है, और समय के साथ हर इनसान को अपने में कुछ बदलाव भी लाने होते हैं। लेकिन वो बदलाव रातो-रात नहीं आ जाते। ज़ाहिर है, कुछ कोशिशें नाकाम होती हैं, तो कुछ सिरे चढ़ती हैं। इन सबका अनुभव बताता है कि जो दौर चल रहा है, जो हालात हैं, जो माहौल है, उसमें कौन-सी चीज़ काम के हिसाब से मुनासिब साबित होगी। मिसाल के तौर पर, आज से बीस साल पहले कम्प्यूटर नहीं थे, और थे तो रोज़मर्रा की ज़िंदगी में नहीं थे। अब आ गए हैं। जैसे, मुझे कम्प्यूटर चलाना नहीं आता, अभी सीखना है। यह सच्चाई है और इसे आपको स्वीकार करना होगा। इसके फायदे हैं, और नुकसान भी। लेकिन जो फायदे हैं, वो आपको चुनने होंगे, और उन्हें जीवन में ढालना होगा। 
एक अच्छा अभिनेता बनने के लिए क्या-क्या गुण होने चाहिए? 
मेहनत, मेहनत, और मेहनत... और इसके साथ बहुत-सी पढ़ाई। आपको पढ़ना चाहिए दुनियाभर का साहित्य। जानें कि बड़े-बड़े लेखकों ने जीवन के अनुभवों को, जीवन की सच्चाइयों को अपनी कहानियों, नाटकों व उपन्यासों में पात्रों के माध्यम से कैसे व्यक्त किया है। इन लेखकों के अनुभवों का निचोड़ उनके लेखन में है। पढ़कर ही पता लगता है कि कितने तरह के लोग हैं संसार में। यह जान जाएंगे तो  अलग-अलग तरह की भूमिकाएं निभाने में सक्षम होंगे। आपकी समझ बढ़ेगी अभिनय के बारे में, लोगों के बारे में, ज़िंदग़ी के बारे में। जीवन को दर्शाने के बारे में आपकी समझ सशक्त होगी। जब कोई भूमिका आपको मिलेगी, तो जो आपने पढ़ा है, समझा है, अपने अंदर समाया है, वो सब आपकी मदद के लिए आ खड़ा होगा। आप बेहतर अभिनेता बनते जाएंगे। लेकिन सुस्ती और काहिली किसी अभिनेता के लिए सही नहीं है। अगर आप बहुत प्रतिभाशाली हैं, लेकिन सुस्त हैं, आलसी हैं, तो बहुत संभव है कि इक्का-दुक्का कामों के बाद आपका काम लोगों तक न पहुंचे। और अगर पहुंचे भी तो लोग आपको यह कहकर नकार दें कि भई कुछ नया तो है नहीं, वही सब पुराना है। 
..और एक अच्छा निर्देशक होने के लिए? 
जीवन की समझ होना बेहद ज़रूरी है। उसके साथ कैरेक्टर और माध्यम की समझ भी उतनी ही ज़रूरी है। असल में एक अच्छी फ़िल्म के साथ बहुत से पहलू जुड़े होते हैं जैसे पेंटिंग, संगीत, नृत्य, आर्ट डायरेक्शन, वेशभूषा, और भी बहुत कुछ। मैं यह नहीं कहूंगा कि इन सबमें परफेक्ट होने की ज़रूरत है, लेकिन हर पहलू की थोड़ी-बहुत जानकारी होनी चाहिए ताकि जिन लोगों के साथ आप फ़िल्म बना रहे हैं, उन्हें यह समझा पाएं कि बतौर निर्देशक आप क्या चाहते हैं। इसके अलावा वाणिज्य की समझ होनी चाहिए, जो मेरे अंदर थोड़ी कम है। मैं बेहिचक यह स्वीकार भी करता हूं। लेकिन मैं सीख रहा हूं और आहिस्ता-आहिस्ता सीख जाऊंगा।  
सफलता को किस तरह सहेजकर रखा जा सकता है? 
नम्रता से। दूसरा, लगातार मेहनत से। तीसरा, यह मानते हुए कि कोई भी चीज़ स्थाई नहीं होती, हमेशा के लिए नहीं होती। अगर आज आप सफल हैं तो एक लेवल पर हैं, कल उस लेवल पर कोई दूसरा होगा। मायने यह रखता है कि आप सफलता को किस पैमाने पर तौलते हैं। अगर अच्छा काम ही आपके लिए सफलता है तो आप हमेशा सफल रह सकते हैं। अगर आप लोकप्रियता को सफलता मानते हैं तो वो क्षणिक है। वो आज है तो कल नहीं। सफलता की मियाद नहीं होती। एक निश्चित स्थान पर पहुंचकर आगे कुछ नहीं होता। जो बहुत ऊंचे मुक़ाम तक पहुंचता है उसे एक दिन नीचे आना ही है, यही जीवन का नियम है। ठीक वैसे ही जैसे, हम पैदा होते हैं, जवान होते हैं, और फिर बुढ़ापे की ओर अग्रसर होते हैं। मृत्यु की तरफ़ बढ़ते हैं और ख़त्म हो जाते हैं। हर वो इंसान जो ऊंचाई पर है, उसे यह नियम हमेशा याद रखना चाहिए। सफलता वही है कि आप कितनी शिद्दत, कितनी मेहनत और कितनी ईमानदारी से अपना काम करते हैं। आख़िरी नतीजे की चिंता करना बेमानी है क्योंकि वो हमारे हाथ में है ही नहीं। वैसे भी, जीवन में हज़ारों-लाखों दूसरी बातें हैं जो कहीं ज़्यादा ज़रूरी हैं। 
ऐसी याद, जो चेहरे पर मुस्कराहट ले आती है? 
मेरा बचपन। लुधियाना में बिताए हुए दिन। पतंगबाज़ी, जिसका मुझे बेहद शौक था। और क्रिकेट, जो अपने आंगन में ही ख़ूब खेला है। बैडमिंटन भी खेला करता था। दोस्तों के साथ मस्ती भरे दिन याद आते हैं। इसके अलावा राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में जो तीन साल मैंने गुज़ारे, वो मेरे जीवन के बेहतरीन समय में से हैं। वहां मुझे सबसे ज़्यादा सीखने का मौक़ा मिला। सीखने की ललक भी ज़बरदस्त थी, उम्र ही ऐसी थी। जब भी दोस्तों, सीनियर्स और अध्यापकों के बारे में सोचता हूं तो महसूस होता है कि मुझे समृद्ध बनाने में उन सबकी कितनी अहम भूमिका रही। आज मैं जो कुछ भी हूं, उसकी बुनियाद राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में ही पड़ चुकी थी।
कोई अधूरी ख़्वाहिश? 
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले... ख़ैर, मैं ऐसा अभिनय और निर्देशन करना चाहता हूं जो हरेक तक पहुंचे। दूसरा, मेरे काम का कलात्मक स्तर भी उतना हो जितना व्यावसायिक स्तर, इन दो चीज़ों का मेल अगर मैं रख पाया तो मैं सतुंष्ट हो जाऊंगा। 
किस्मत पर कितना भरोसा है?
पूरा। किस्मत पर मुझे पूरा यक़ीन है। आपके हाथ में उतना भर है जितना है, बाकी सब किस्मत को ही तय करना है। 
अपनी किस ख़ूबी से प्यार है? 
ऐसी तो मुझमें कोई ख़ास बात है नहीं। ख़ूबी तो नहीं ही है। हां, आदत कह सकते हैं। एक चीज़ जो जीवन में बहुत जल्दी सीखने को मिल गई थी वो यह कि जो भी काम हाथ में लें, अपनी तरफ़ से उसे पूरी ईमानदारी से निभाने की कोशिश करें। परिणाम परमात्मा पर छोड़ दें। इसलिए कोशिश में कोई कमी नहीं रहने देता, अपना फर्ज़ निभाता जाता हूं, बस। 
घर और बाहर के जीवन में किस तरह सामंजस्य बिठाते हैं? 
कम काम करता हूं तो मुझे काम की तरफ़ तवज्जो देने का वक़्त मिलता है, इसीलिए घर की तरफ़ भी ध्यान दे पाता हूं। परिवार के साथ समय बिताने का वक़्त मिलता है, जो बतौर इंसान मेरे लिए बहुत अहम है। अगर आप अच्छा काम करना चाहते हैं तो ज़ाहिर है कि उस तरफ़ आपका पूरा ध्यान होना चाहिए। इसीलिए कम काम करता हूं, असल में ज़्यादा काम करना मेरे बस का है भी नहीं। मेरे लिए यह मुमकिन नहीं कि मैं एक साथ चार फ़िल्में करूं। एक समय में एक ही काम ईमानदारी से कर लूं, वही बहुत है। 30-35 साल के करियर में शायद कोई ऐसा दिन नहीं गया जब मैंने एक साथ दो काम किए हों। इससे काम की सीमा तय हो जाती है और फ़ायदा यह होता है कि आप घर समय पर लौट सकते हैं, पत्नी और बच्चों के साथ वक़्त बिता सकते हैं, बाहर घूमने जा सकते हैं। और काम को लेकर आपकी थोड़ी-सी भूख बनी रहती है। मेरे ख़याल से इतना काम नहीं करना चाहिए कि दर्शक देख-देखकर आजिज़ आ जाएं या आपके अभिनय से ही बोर हो जाएं। बेहतर है कि काम की भूख बरक़रार रखी जाए ताकि आपका दर्शक वर्ग बना रहे और उसे आपके काम का इंतज़ार रहे। 
ख़ुद में क्या बदलाव लाना चाहेंगे? 
बहुत कुछ। एक तो काफी अरसे से मैं नियमित व्यायाम नहीं कर पा रहा हूं, जो करना चाहूंगा। खान-पान पर नियंत्रण रखना चाहता हूं, ज़्यादा अनुशासित जीवन जीना चाहता हूं। और ज़्यादा मेहनत, और ज़्यादा समर्पण से काम करना चाहता हूं। परिवार और बच्चों के प्रति और समर्पित होना चाहता हूं।
ऐसी कौन-सी जगह है जहां आप बार-बार जाना चाहेंगे? 
पहाड़ मेरी कमज़ोरी हैं। बचपन में पिताजी हमें हर साल कश्मीर ले जाया करते थे। पिछले कुछ सालों से हिमाचल ख़ासकर मनाली से विशेष जुड़ाव रहा है। मनाली में सन् 1997 से 2000 तक बतौर निर्माता-निर्देशक कई टीवी कार्यक्रम बनाए। मनाली में कुछ मित्र भी हैं। तक़रीबन हर दूसरे साल परिवार के साथ मनाली जाता हूं। वैसे मैंने हिन्दुस्तान का कुछ भाग नहीं देखा है, लेकिन जितना देखा है उसमें राजस्थान बेहद पसंद है। उत्तर प्रदेश अच्छा लगता है। बिहार की तरफ़ नहीं जा पाया हूं, जिसका अफ़सोस है। एक ही बार किसी काम से पटना गया था, वो भी एक दिन के लिए। भ्रमण का शौक़ है लेकिन पहाड़ होने चाहिए। पहाड़ों से कुछ ऐसा लगाव है कि वहां जाकर महसूस होता है जैसे घर में ही हूं।
...मुंबई में पसंदीदा जगह? 
मेरा घर। 
ख़ुशी के क्या मायने हैं? 
बड़ा मुश्किल सवाल है। जो चीज़ आपको सुख दे, वो भले ही कुछ पलों की क्यों न हो, वही है ख़ुशी। फिर भले ही वो आपकी हो या आपके बच्चों की। कोई अच्छी ख़बर पढ़ने को मिल जाए तो ख़ुशी होती है। मुकम्मल ख़ुशी तो बहुत बड़ी चीज़ है, वो तो जब परमात्मा चाहेंगे उस दिन मिलेगी। हर इंसान कोशिश तो यही करता है कि काम करके, पैसा कमाकर, बड़ा घर और गाड़ियां लेकर कुछ ख़ुशी हासिल की जाए। मुकम्मल ख़ुशी इसमें नहीं है। मुझे लगता है कि ज़िंदग़ी में छोटी-छोटी चीज़ें जैसे अच्छी चाय की प्याली, अच्छा साथ, अच्छी बात, कुछ अच्छा पढ़ना, अच्छा कहना, अच्छा सुनना, हवा का चलना या कोई महक... इनसे आपको भले ही क्षण भर की ख़ुशी हासिल हो, लेकिन इसे अपनाना चाहिए, जीना चाहिए। बिना यह महसूस किए कि यह तो बड़ा कम है। जो कुछ मिल रहा है उसके लिए ऊपरवाले को सलाम ठोकें और कहें कि इतना भर तो हमारे हिस्से में आया। 
प्रिय किताबें? 
नाम लेना शुरू करूंगा तो सूची लम्बी हो जाएगी। एक या दो किताबों के बारे में कहना मुमकिन नहीं है। प्रिय लेखकों के नाम ज़रूर ले सकता हूं। हिन्दी, उर्दू या विदेशी साहित्य, जो कुछ भी मैं पढ़ पाया हूं या जितने भी अच्छे लेखक हैं और जिन तक मेरी पहुंच हो पाई है, सब पंसद हैं। प्रेमचंद, कुंवर नारायण, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और रघुवीर सहाय जैसे लेखकों को रुचि से पढ़ा है। ड्रामा का छात्र था इसलिए साहित्य मेरा विषय रहा। दुनिया भर के नाटक पढ़ने को मिले। फिर चाहे वो इंडियन क्लासिकल ड्रामा हो या मॉडर्न इंडियन ड्रामा, वेस्टर्न ड्रामा हो एशियन ड्रामा या फिर ग्रीक ट्रेजेडी...। शेक्सपियर, चेखव, निकोलोई गोगोल, गोर्की, आर्थर मिलर और टेनेसी विलियम जैसे लेखक मेरे पसंदीदा हैं। भारतीय लेखकों में मोहन राकेश और धर्मवीर भारती के जो भी नाटक और उपन्यास पढ़ने को मिले, उन सभी का प्रभाव मुझ पर रहा है। 
प्रिय फ़िल्में? 
बहुत-सी हैं। आवारा, श्री 420, गाइड, दो बीघा ज़मीन बेहद पसंद है। कई फ़िल्में छूट रही हैं। प्यासा, काग़ज़ के फूल, साहब, बीवी और गुलाम, शोले और बैंडिट क्वीन पसंद हैं। आधुनिक फ़िल्मकारों की बात करूं तो कई फ़िल्में आज भी अच्छी बन रही हैं। सत्यजीत रे, मृणाल सेन और तपन सिन्हा जैसे दिग्गज फ़िल्मकारों की बात ही अलग है। अकीरा कुरोसावा, फ्रांसिस फोर्ड कोपोला, जीन लुक गोडार्ड जैसे फ़िल्मकार हैं जिन्होंने बेहतरीन काम किया है। मैंने उन्हें दिल से सराहा है, उनसे बहुत कुछ सीखने की कोशिश की है।
गॉडफादर पार्ट वन ने मुझे बतौर फ़िल्म चिंतक काफी हद तक प्रभावित किया है। मुझे याद है, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने फ़िल्म फेस्टिवल का आयोजन किया था, जो एक-डेढ़ महीने तक चला था। उस फेस्टिवल में मुझे 70-80 फ़िल्में देखने का मौक़ा मिला था। विश्व सिनेमा से उसी दौरान मुख़ातिब हुआ। चार्ली चैपलिन को बेइंतहा पसंद करता हूं। मेरे ख़याल से सिनेमा को लेकर उनसे बड़ा चिंतक, उनसे बड़ा फिल्मकार आज तक नहीं हुआ।
प्रिय अभिनेता? 
कोई एक नहीं। दिलीप कुमार, नसीरुद्दीन शाह, कमल हसन, मर्लिन ब्रैंडो और डस्टिन हॉफमैन मेरे प्रिय अभिनेता हैं। अकीरा कुरोसावा की फ़िल्मों का नायक तोशिरो मिफूने ख़ासतौर से पसंद है। और बहुत से कलाकार हैं जिनके नाम मैं शायद भूल रहा हूं। जिन्हें भूल रहा हूं, उनसे माफी चाहता हूं। 
भविष्य की योजनाएं क्या हैं? 
मेहनत और काम करते रहना ही है। क्योंकि अगला क्षण कैसा है, इसके बारे में आप तय तो नहीं कर पाते हैं। बस यही है कि काम करते चले जाएं। जब तक शरीर और दिमाग साथ देते रहेंगे... उम्मीद है कि लम्बे अरसे के लिए देंगे भी... तब तक काम करूंगा। हमारा क्षेत्र ऐसा है कि इसमें रिटायरमेंट की ज़रूरत नहीं होती। लेकिन मुझे लगता है कि कुछ अरसे बाद मैं काम शायद कम कर दूं, साल में एक या दो असाइमनेंट करूं। मुझे अभिनय से लगाव है, जुड़ाव है। लिखना अच्छा लगता है, निर्देशन करना भी अच्छा लगता है, सो इस काम से जुड़ा तो रहना चाहता हूं। चूंकि मेरा बड़ा बेटा शाहिद भी इसी फील्ड में है और छोटे दोनों बच्चे रुहान और सना भी इसी लाइन में आना चाहते हैं, पत्नी सुप्रिया भी अभिनेत्री हैं, तो कहीं-न-कहीं जुड़ाव तो रहेगा ही। जब तक हूं, तब तक जुड़ा रहूंगा। मगर आहिस्ता-आहिस्ता काम थोड़ा कम करने की कोशिश रहेगी। हां, कोई-न-कोई काम बतौर अभिनेता या बतौर निर्देशक या बतौर लेखक करता रहूंगा। 
जीवन का अर्थ? 
सीख, सोच, विचार... जीवन का यही अर्थ है। यह सोच कि हम यहां हैं तो क्यों हैं! 

('अहा ज़िंदगी' पत्रिका के नवम्बर 2011 अंक में प्रकाशित)

15 comments:

  1. bahut imaandaaree se ,liyaa huaa shaakshaatkaar,
    mazaa aayaa

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  2. बढ़िया रहा साक्षात्कार ...

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  3. मेरे प्रिय कलाकार का साक्षात्कार प्रस्तुत करने का आभार!

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  4. आपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
    कृपया पधारें
    चर्चा मंच-694:चर्चाकार-दिलबाग विर्क

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  5. बहुत अच्छा लगा पढ़कर ...

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  6. Fantastic one! Enjoyed every bit of the interview. Thanks.
    Navya

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  7. बहुत कुछ सिखने को भी मिला इस साक्षात्कार से!
    बहुत सुन्दर!

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  8. आप सभी का दिल से आभार...

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  9. शानदार, प्रभावी साक्षात्कार। कई ज़रूरी सवालों के सुलझे जवाब...

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  10. पंकज कपूर के कई इन्टर्व्यू मैंने पढ़े हैं, उन सब में शायद सबसे अच्छी इन्टर्व्यू यही लगी...बहुत ही बढ़िया!!

    उनकी फिल्म मौसम में खामियां थी, एडिटिंग और होनी चाहिए थी..लेकिन फिर भी मुझे बहुत पसंद आई थी यह फिल्म!!

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  11. बहुत शुक्रिया संदीप, चण्डीदत्त जी!

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  12. अभि... आपकी बात सही है, कुछेक ख़ामियों के बावजूद 'मौसम' ने अपना असर दिखाया ही है. धन्यवाद.

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