Friday, July 22, 2011

लोर्का की एक अधूरी कविता

मैं सोना चाहता हूं 
मैं सो जाना चाहता हूं

ज़रा देर के लिए 
पल भर, एक मिनट 
शायद एक पूरी शताब्दी 

लेकिन 
लोग यह जान लें 
कि मैं मरा नहीं हूं 

कि मेरे होठों पर चांद की अमरता है 
कि मैं पछुआ हवाओं का अजीज़ दोस्त हूं 
कि
कि मैं अपने ही आंसुओं की 
घनी छांह हूं। 
-फेदेरिको गार्सिया लोर्का

5 comments:

  1. भावपूर अभिवयक्ति...

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  2. लोर्का की इस अधूरी कविता मे पूर्णता की छाप भी दिखाई देती है।

    सादर

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  3. लोर्का की इस खूबसूरत कविता को साझा करने के लिए आभार.
    सादर,
    डोरोथी.

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