Monday, July 4, 2011

उधेड़बुन

छत पर कोने में
टंगी मकड़ी 
देखती रही मुझे 
और मैं उसे 

किसी उधेड़बुन में 
रहे देर तक दोनों 

अन्तर बस इतना 
वो बुन रही थी जाल 
और मैं जीवन। 
-माधवी

11 comments:

  1. bahut achchhe!!! chhoti, lekin badi baat!!!

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  2. ओह, खूबसूरत..

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  3. आहा.. क्या खूब बात कही है छोटे में.. बहुत अच्छा..

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  4. बहुत सुन्दर अभिभूत कर देने वाली रचना

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  5. सुन्दर ---जाल और जीवन ||

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  6. choti si kavita ...par dil ko chhoo gayi

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  7. अजय जी, रूप जी, अभि, प्रतीक, चन्द्रभूषण और रविकर जी.. आप सभी का आभार।
    अना.. आपका भी शुक्रिया।

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  8. कोई फर्क़ नही . जाल ही मकड़ी का जीवन है !

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  9. बहुत सुन्दर...
    जीवन भी किसी मक्कड जाल से कम थोड़ी होता है..

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