Tuesday, April 19, 2011

हर सुबह देखती हूं

 
हर दिन
बेकल रात को 
बुनती हूं 
इक नया सपना

कुछ सपने सदाबहार हैं 
तितली कोई पकड़कर
बंद करना हौले से मुट्ठी
या उड़ते जाना अविराम 
मीलों ऊपर, दिशाहीन

हर सुबह देखती हूं 
हथेली पर बिखरे 
तितलियों के वो 
रंग अनगिन 
और 
रंग देती हूं तुम्हें

हर सुबह देखती हूं 
हथेली पर ठहरा वो 
आकाश अनन्त 
और 
भर लेती हूं उड़ान 
लिए साथ तुम्हें। 

('जनसंदेश टाइम्स' में 1 अप्रैल 2012 को प्रकाशित)

8 comments:

  1. शब्‍दों का सतरंगी इन्‍द्रधनुष.

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  2. उत्साह उछाह की प्रभावी रचना

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  3. जीवन में आशा का संचार करती रचना ..आपका आभार

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  4. संगीता जी, राहुल जी, अरविन्द जी.. आभार स्वीकारें।
    केवल जी.. शुक्रिया।
    अभी.. :)
    सिद्धेश्वर जी.. बहुत धन्यवाद आपका।

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  5. शब्‍दों का बहुत खूबसूरत एहसास कराती रचना... :)

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