Monday, January 10, 2011

कल की कविता

आने वाले कल के ख़याल
बेचैन करते हैं 
आज को

कल की परवाह 
उठाती है सर
और बौना-सा बन आज
दुबक जाता है किसी
कोने में जाकर

कल की तदबीरें
बेमानी हैं आज के लिए 
वजूद लिए अपना आज
भटकता है 
दर-ब-दर

कल के चक्र में
फंसकर आज 
तोड़ता है दम
थक-हार कर 

कल का इंतज़ार? 
गुज़र जाएंगे आज 
कल, परसों
और फिर बरसों 
लेकिन 
कल नहीं आएगा।
-माधवी

2 comments:

  1. very well written... Kal kuchh nahin hai, jo kuchh hai aaj hai.. aaj achchha hai toh zindagi khoobsoorat hai

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