Friday, October 8, 2010

खुली हुई खिड़की

अंधेरा पसरा हुआ है
खिड़की के बाहर
घुप्प...

बियाबान है पूरी पहाड़ी
मद्धम एक लौ
दूर वीराने से निकल
खेल रही है आंख-मिचौली 

यहां-वहां भटक रही
नन्ही मशालों पर
जा अटकी हैं बोझिल नज़रें 
जाने किस तलाश में है 
टोली जुगनुओं की? 

बेसुर कुछ आवाज़ें
तिलचट्टे और झींगुर की
चीरे जा रही हैं
तलहटी में बिखरे सन्नाटे को 

टिमटिमाते तारों ने
ओढ़ लिया है बादलों का लिहाफ़
और
हवा के थपेड़ों से
झूलने लगा है कमरे से सटा 
देवदार का दरख़्त 

मैं खिड़की बंद कर लेती हूं
...
...
भीतर एक शोर था
सन्नाटे में डूबकर
शांत हो गया है जो।
-माधवी 

('लमही' के अप्रैल-जून 2011 अंक में प्रकाशित)

5 comments:

  1. बहुत ही सुन्दर और सशक्त

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  2. अहसासों का बहुत अच्छा संयोजन है ॰॰॰॰॰॰ दिल को छूती हैं पंक्तियां ॰॰॰॰ आपकी रचना की तारीफ को शब्दों के धागों में पिरोना मेरे लिये संभव नहीं

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  3. बहुत सुन्दर बिम्ब समायोजन
    सुन्दर रचना

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  4. gd 1..................yashpal

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  5. आप सभी का बहुत शुक्रिया !!

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