(पांच साल की उम्र से शुरू हुए थिरकते कदम जब 94
साल में भी थिरक रहे हों तो इसे चमत्कार कहना ग़लत नहीं होगा। इस चमत्कार का नाम
है सितारा देवी! आज भी उनकी बड़ी-बड़ी आंखें वो जज़्बात
बयां करती हैं जो ईश्वर की देन के बिना संभव नहीं है। एक कलाकार के रूप में जीया
जीवन उनके भीतर उत्साह बनकर दौड़ता है। लेकिन ये उत्साह उनके पैरों में ही नहीं,
उनकी ज़बान से भी छलकता है। उनसे बात करो तो यूं लगता है आप किसी उमंग से भरी
किशोरी से बात कर रहे हैं।)
कथक आपको विरासत में मिला है। वो वक्त क्या था, जब आपने पहली बार पैरों को
हरकत देनी शुरू की?
मैंने पिता सुखदेव महाराज से कथक सीखा है। मेरे पिता नृत्य के साथ-साथ गीत-संगीत में भी पारंगत थे। वे राजदरबार में गायक थे। उस समय नृत्य
पर केवल पुरुषों का अधिकार माना जाता था। पिताजी ने सोचा कि क्यों न कोई ऐसा नृत्य
तैयार किया जाए जिसे लड़कियां भी कर सकें। उन्होंने धार्मिक कहानियों को कविता-रूप
देकर उन पर मुझे और मेरी बहनों- अलकनंदा और तारा- को नृत्य सिखाना शुरू किया। पिताजी
को हमें नृत्य सिखाते देख मोहल्ले में कोहराम मच गया। लोग पिताजी से कहने लगे कि
लड़कियों को दरबारी नाच सिखा रहे हो, उनसे मुजरा करवाओगे क्या! बनारस में हर जगह उनकी आलोचना होने लगी। उन्हें समाज से बहिष्कृत कर दिया गया।
मार-पीटकर मोहल्ले से बाहर तक निकाला गया। लेकिन पिताजी ने हार नहीं मानी। वे अपने
फ़ैसले पर अडिग रहे क्योंकि वे इस कला को बच्चों तक पहुंचाना चाहते थे। हम बनारस
में ही किसी दूसरी जगह जाकर बस गए और पिताजी ने हमें प्रशिक्षण देना जारी रखा।
कथक असल में एक बिरादरी है, जो कथावाचक थी। हम इसी कथक बिरादरी
से हैं। हमारे पूर्वज मंदिरों में कथाएं कहते हुए नाचते-गाते थे। उन्हें शादी-विवाह
और तीज-त्योहार के अवसर पर राजाओं-महाराजाओं के दरबार में नाचने के लिए बुलाया
जाता था। राजाओं की शान में किया जाने वाला यह नृत्य दरबारी नाच कहलाने लगा। उस
वक्त वाजिद अली शाह का राज था। वाजिद अली ने इस नृत्य को कथक नाम दिया। पर कथक
सीमित होकर रह गया था। उसमें से कहानी और भजन-भाव ख़त्म होता चला गया। पिताजी ने
जो लिखा, वो कथा-नृत्य है। वे कथक को राजदरबारों से बाहर लेकर आए। पिताजी से हमने
हर तरह का नृत्य सीखा, कथक भी और कथा-नृत्य भी। पिताजी के अलावा मेरे गुरु शंभूनाथ
जी महाराज और अच्छन जी महाराज थे, जिनसे मैंने नृत्य की बारीकियां सीखीं। अच्छन जी
महाराज पंडित बिरजू महाराज के पिता हैं। ताल और लय पर उनकी गहरी पकड़ थी।
आपका वास्तविक नाम धनलक्ष्मी है। सितारा नाम किसने दिया?
मैं धनतेरस के दिन पैदा हुई थी। पिताजी कहते थे हमारे घर
लक्ष्मी आई है, और उन्होंने मेरा नाम धनलक्ष्मी रख दिया। घर में सब मुझे प्यार से
धन्नो बुलाते थे। सितारा नाम बाद में मिला, जब मैंने नृत्य सीखना शुरू किया। मैं छोटी
उम्र से ही स्टेज पर नाचने लगी थी। एक बार स्कूल में ‘सावित्री-सत्यवान’ का नाटक हुआ जिसमें
कुछ लड़कियों के साथ मिलकर मैंने नृत्य-नाटिका पेश की। तब मैं आठ साल की थी। सब आश्चर्य
में पड़ गए कि छोटी-सी बच्ची ने इतना अच्छा नृत्य कैसे तैयार किया। कार्यक्रम के
बाद मास्टरजी मुझे स्टेज पर लेकर आए और बोले कि यह हमारा आज का सबसे बड़ा आर्टिस्ट
है। उस नृत्य-प्रदर्शन की ख़बर ‘आज’ नाम के अख़बार में भी छपी। पिताजी ने अगले दिन अख़बार देखा तो बहुत ख़ुश हुए।
दो-तीन दिन बाद मास्टरजी हमारे घर आए। पिताजी ने कहा, उनके लिए नाश्ता लेकर जाओ। मैं
नाश्ता रखकर भाग आई। तब तक मास्टरजी को मालूम नहीं था कि मैं सुखदेव जी की बेटी
हूं। जब मास्टरजी को पता चला तो उन्होंने पिताजी से कहा कि यह बच्ची बहुत तेज़ है,
इसे नृत्य ज़रूर सिखाइए। उस दिन से मेरा विधिवत प्रशिक्षण शुरू हुआ। तब से पिताजी
और बहनें मुझे सितारा कहकर बुलाने लगे। धीरे-धीरे बाकी लोग भी इसी नाम से पहचानने
लगे।
फ़िल्मों में कैसे आना हुआ?
पिताजी बनारस मूल के थे। वो कोलकाता में मैमन सिंह महाराज
के दरबार में मुलाज़िम थे और उनकी बेटियों को गाना सिखाते थे। बनारस आना-जाना होता
रहता था। मैंने पांच साल की उम्र से नृत्य सीखना शुरू किया था और दस साल की
होते-होते स्टेज पर परफॉर्म करने लगी थी। नृत्य की शुरुआत गणेश-वंदना से करती थी।
दो-तीन घंटे नाचती थी और हर परफॉर्मेंस पर मुझे 20-25 रुपए मिलते थे।
उन दिनों ‘ऊषा-हरण’ पिक्चर बन रही थी। मुंबई से कुछ लोग बनारस आए हुए थे। उन्हें अपनी फ़िल्म के
लिए ऐसी लड़की चाहिए थी जिसे धार्मिक नृत्य आता हो। कलाकार ढूंढ़ते-ढूंढ़ते वो लोग
हमारे घर पहुंचे। उस वक्त मैं 12 साल की थी। फ़िल्मवालों ने मुझे 400 रुपये महीने
की तनख़्वाह और मुंबई में फ्लैट देने का प्रस्ताव रखा। हम सपरिवार मुंबई शिफ्ट हो
गए।
‘ऊषा हरण’ के बाद ‘नगीना’, ‘रोटी’, ‘होली’, ‘वतन’, ‘अंजलि’, ‘मदर इंडिया’, ‘बाग़बान’ जैसी कई फ़िल्मों में काम
किया।
‘मुग़ल-ए-आज़म’ आपके घर की पिक्चर थी।
उसमें काम क्यों नहीं किया?
आसिफ़ साहब से शादी के बाद उनकी फ़िल्मों ‘हलचल’ और ‘फूल’ में काम किया। ‘मुग़ल-ए-आज़म’ में मेरे लिए कोई रोल नहीं था। वो मुग़लों की फ़िल्म थी और उसमें लंबी-चौड़ी
कद-काठी वाले लोग चाहिए थे। ‘बहार’ के रोल में निगार सुल्ताना को लिया गया। कम ही लोग जानते हैं कि ‘मुग़ल-ए-आज़म’ पहले ‘अनारकली’ नाम से बन रही थी। उसमें नर्गिस बतौर हीरोइन काम
कर रही थी और हीरो थे सप्रू। चार-पांच रीलें भी बन चुकी थीं लेकिन उसी बीच
हिन्दू-मुस्लिम दंगे भड़क गए और फ़िल्म के फायनेंसर पाकिस्तान भाग गए। पिक्चर बंद
करनी पड़ी। फिर चार-पांच साल बाद नए फायनेंसर मिलने पर रीमेक शुरू हुआ। उसमें ‘सलीम’ के लिए दिलीप कुमार और मधुबाला ‘अनारकली’ के लिए चुनी गई। मधुबाला मुझसे नृत्य सीखती थी।
कितना अच्छा नाची थी वो ‘मुग़ल-ए-आज़म’ में!
क्या वजह रही कि फ़िल्मों को अलविदा कहना पड़ा?
मुझे ख़ास किरदारों वाले रोल मिलते थे। उनके लिए अवॉर्ड भी
मिले। पर फ़िल्मों की वजह से कथक पर ध्यान नहीं दे पाती थी क्योंकि दिन-रात शूटिंग
चलती थी। हालांकि फ़िल्मों में भी ज़्यादातर भूमिकाएं नृत्य पर ही आधारित थीं। लेकिन
मैंने सोचा कि फ़िल्में आज हैं कल नहीं। कथक मेरी प्राथमिकता थी और रोज़ी-रोटी का
साधन भी। सो, धीरे-धीरे काम कम कर दिया। कथक में फिर से रमी तो फ़िल्में पूरी तरह
छूट गईं।
...और वो रबीन्द्रनाथ टैगोर से ‘नृत्य साम्राज्ञी’ की उपाधि मिलना?
उन दिनों आज़ादी की लहर थी। राज्यों को आपस में मिलाया जा
रहा था। इस सिलसिले में मुंबई में एक बड़ा जलसा हुआ जिसमें बीकानेर, जोधपुर,
जयपुर, बनारस वगैरह के राजा-महाराजा इकट्ठे हुए थे। उसमें मेरा प्रोग्राम था। मुझे
15-20 मिनट का समय दिया गया था। नाच के बाद मैं चुपचाप खड़ी हो गई। वहां सरोजिनी नायडू भी थीं। उन्होंने पूछा कि मैं मायूस क्यों खड़ी हूं। मैंने धीमे स्वर में
कहा कि 15 मिनट में क्या नाच दिखाती, मैं तो सारा दिन नाचती हूं। यह सुनकर
उन्होंने उद्घोषणा की कि इस बच्ची का नाच से दिल नहीं भरा है, इसलिए इसे 15 मिनट का वक्त और दिया जाए। कार्यक्रम में गुरु रबीन्द्रनाथ
टैगोर भी आए हुए थे। मेरा नृत्य देखकर वे बहुत प्रसन्न हुए। इनाम के तौर पर मुझे
एक साड़ी, 50 रुपए और मिठाई का डिब्बा दिया गया। पिताजी ने सिखाया था कि बस
आशीर्वाद लेना और कुछ नहीं। मैंने झट से कहा कि साड़ी फट जाएगी, मिठाई खा लूंगी और
पैसे खर्च हो जाएंगे... मुझे बस आपका आशीर्वाद चाहिए। मेरा जन्म कोलकाता का है।
रबीन्द्रजी से बंगाली में बात करने लगी तो वे और ख़ुश हुए। उन्होंने आशीर्वाद देकर
मुझे अगले दिन उनके पास आने को कहा। उनका सान्निध्य मिलने लगा। उन्होंने एक बार
तीन घंटे तक मेरा नृत्य देखा और मुझे ‘नृत्य-साम्राज्ञी’ की उपाधि दी। तब मैं 16 साल की थी। अंग्रेज़ी अख़बारों और फ़िल्मफेयर ने ‘नृत्य साम्राज्ञी’ को ‘कथक क्वीन’ बना दिया।
आपने दुनिया भर में परफॉर्म किया है। कैसा अनुभव रहा?
रूस में मेरा नृत्य देख प्रशंसक मुझे गोद में उठा लेते थे। एक
बार रोमानिया में कोई पार्टी थी, जिसमें वहां के प्रधानमंत्री के साथ मैंने बालरूम
डांस किया था। सब लोग बहुत हैरान थे क्योंकि उन्होंने अपने प्रधानमंत्री को नाचते
हुए कभी नहीं देखा था। पार्टी ख़त्म होने के बाद प्रधानमंत्री ने मेरे लीडर से कहा
कि सितारा को हमें दे दो। लीडर हंसते हुए बोला कि यह बात मुझसे नहीं, भारत सरकार
से कहिए। मैं मन ही मन सोच रही थी कि यहां कौन रहेगा! दुनिया के कोने-कोने में घूमी लेकिन भारत के अलावा मेरा मन कहीं नहीं लगा।
मैं अब भी यही सोचती हूं कि भारत के लोग अमेरिका या दूसरे देशों में कैसे रह लेते
हैं। हिन्दुस्तान की बात ही कुछ और है।
कोई और दिलचस्प वाकया?
एक बार डीआईजी साहब ने फ़ोन कर मुझे मिलने के लिए बुलाया।
उन्होंने कहा कि एक काम है, थोड़ा मुश्किल है लेकिन आप कर सकती हैं। भिंड में एक
बड़ा समारोह था और डीआईजी साहब चाहते थे कि मैं वहां नृत्य पेश करूं। मैं मान गई।
मेरी टीम के लोगों ने सुना तो वो डरे लेकिन मेरे कहने पर जैसे-तैसे तैयार हो गए।
हम ग्वालियर में ठहरे थे। शाम को भिंड पहुंचे जहां चारों तरफ पुलिस का पहरा था। माहौल
डरावना था। हमें देखकर सब हंसने लगे। मैंने हाथ जोड़कर कहा कि पहली बार आप लोगों
के सामने नाचने जा रही हूं, इत्मीनान से देखिए, आपको अच्छा लगेगा। ‘जय भवानी’ के उच्चारण के साथ नृत्य शुरू किया तो सब
मंत्रमुग्ध होकर देखते रह गए।
आसिफ़ साहब से कैसे मुलाक़ात हुई? उनसे अलग क्यों हुईं?
हम कभी अलग नहीं हुए। आसिफ़ साहब के मामा नज़ीर की
प्रोडक्शन कंपनी थी, मैं उसमें काम करती थी। हम पार्टनर थे। आसिफ़ कंपनी में प्रोडक्शन
मैनेजर थे। घर जैसा माहौल था और हम दोनों अच्छे दोस्त बन गए। रोज़ का मिलना-जुलना
था। दोस्ती धीरे-धीरे मोहब्बत में बदल गई। लेकिन आसिफ़ साहब के मामा नहीं चाहते थे
कि हमारी शादी हो क्योंकि मैं ब्राह्मण थी। उनकी मां भी हमारे रिश्ते के ख़िलाफ़
थीं। उन्होंने लाहौर में आसिफ़ की शादी करा दी... यह कहकर कि हमें बहू चाहिए,
फ़िल्मों में काम करने वाली नहीं। बाद में आसिफ़ साहब उन्हें छोड़कर मेरे साथ रहने
लगे। उन्हें बच्चा चाहिए था। हमारा कोई बच्चा नहीं हुआ तो उन्होंने निगार सुल्ताना
को अपना लिया। निगार मेरी दोस्त थी। मुझे कभी कोई शिकायत नहीं रही किसी से। आसिफ़
साहब बहुत अच्छे इंसान थे, लेकिन उनकी एक ही गलती थी कि उन्होंने अख़्तर से शादी
कर ली। अख़्तर, दिलीप कुमार की बहन थी। वो मंगलीक थी। मैंने बहुत मना किया था,
लेकिन वो नहीं माने। उनके इस फ़ैसले से दिलीप साहब भी बहुत ख़फ़ा हुए थे।
कथक और पारिवारिक जीवन के बीच सामंजस्य बैठाने में मुश्किलें नहीं आईं?
जब फ़िल्मों में काम करती थी तब मां-पिताजी पूरा साथ देते
थे। किसी तरह की परेशानी नहीं हुई कभी। हां, आसिफ़ साहब की दूसरी शादियों से मेरे
जीवन में थोड़ी उथल-पुथल ज़रूर मची लेकिन मैंने नृत्य पर इसका असर नहीं पड़ने
दिया। कई बार उनसे झगड़े भी हुए लेकिन मेरी रूटीन नहीं टूटी। नृत्य का अभ्यास चलता
ही रहा। जब खाली समय होता तो कुछ-न-कुछ नया सीखने लगती। सीखने की ललक ने मुझे
हमेशा बांधे रखा। स्विमिंग करती थी, भरतनाट्यम सीखती थी, बॉलरूम डांस सीखती थी।
रशियन बैले करती थी जो अब तक किसी ने नहीं किया था। मेरा विश्वास हमेशा कुछ नया और
कुछ अलग करने में रहा।
प्रताप बरोट से कैसे मिलना हुआ?
मैं परफॉर्मेंस के लिए अफ्रीका गई थी। जान-पहचान के कारण हम
सब उनके घर ठहरे हुए थे। प्रताप को देखकर मुझे बहुत अच्छा लगा। मैंने उनके सामने
शादी का प्रस्ताव रख दिया। फिर वे भारत आए और हमारी शादी हो गई। आसिफ़ साहब कई बार शिक़ायत भरे लहज़े में कहते कि तुमने
शादी क्यों कर ली! रंजीत के पैदा होने पर आसिफ़
उसे गोद में उठाकर प्रताप से कहते कि यह मेरा बेटा है। मैं भी उन्हें कह देती कि
हां आसिफ़ साहब, यह आपका ही बच्चा है। हम सब हंसने लगते। आसिफ़ साहब को आज भी बहुत
मिस करती हूं मैं। हालांकि उन्होंने मुझे कोई सुख नहीं दिया, लेकिन वो बहुत ज़हीन और
क्रियेटिव थे। मैं उनकी शख़्सियत पर फ़िदा थी।
आप नहीं चाहती थीं कि बेटा रंजीत बरोट भी कथक की दुनिया में आए?
रंजीत को शुरू से ही तबला बजाने का शौक रहा। मेरी मां कई
बार कहतीं कि घर में सब गाने-बजाने और नाचने वाले हैं, इसे तो डॉक्टर बनाओ। लेकिन
रंजीत का रुझान संगीत में ही था। आज वो बड़ा संगीतकार है। ए आर रहमान उसे बहुत
पसंद करते हैं। दोनों साथ में ख़ूब काम करते हैं।
अगर आज के दौर में कथक अपनातीं तो कितनी सफल होतीं?
भगवान जाने क्या होता! वो समय ही कुछ और
था। मैं इतना कूदती-फांदती थी कि घरवाले परेशान हो जाते थे। उन्हें लगता था कि मैं
खेल-कूद ही करती रहूंगी, नाच नहीं सीखूंगी। मैं अपनी बहनों को नाचते हुए देख उनकी
नकल करती थी। स्कूल में भी नाचती। पूरी लगन के साथ नृत्य सीखा मैंने। अब न वो कथक
रहा और न वो समर्पण।
आप अब भी परफॉर्म करती हैं। इतनी उम्र में परफॉर्म करने के बावजूद आपका नाम
रिकॉर्ड बुक्स में नहीं है?
सबको पता है कि मैं पिछले 85-90 साल से नाच रही हूं। अब
व्हील-चेयर पर बैठकर फुट-वर्क और अभिनय करती हूं। दूसरा रिकॉर्ड यह है कि मैं
लगातार 12 घंटे तक नाच चुकी हूं। इतनी देर तक यहां कोई नहीं नाचा। लेकिन ये सब
रिकॉर्ड रखना लोगों का काम है। मेरा काम नाचना है, मैं क्यों इस बारे में सोचूं!
आजकल बड़े-बड़े कलाकार रियेलिटी शो में बतौर जज आने लगे हैं। आपने इस बारे में
नहीं सोचा?
मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता। यह भी कोई बात हुई कि दस
लड़कियां मेहनत से नाचें और किसी एक को चुन लो। मैं किसी को दुखी नहीं करना चाहती।
एक बार ऐसा ही हुआ था। सारे प्रतियोगी बहुत अच्छा नाचे
और आकर मेरे पैर छूने लगे। मुझे सब अच्छे लगे लेकिन चुनना किसी एक को पड़ा। मैंने
तभी सोच लिया था कि भविष्य में जज नहीं बनूंगी।
दिनचर्या क्या रहती है?
जीवन में अब कोई नियम नहीं है। पहले सुबह पांच बजे उठकर
रियाज़ करती थी। अब जो मन में आए, करती हूं। कथक के बारे में सोच-विचार चलता रहता
है। गाने की प्रैक्टिस भी करती हूं लेकिन दिल की बीमारी के कारण ज़्यादा गाने पर
पाबंदी है। डॉक्टरों ने ब्रेक लगा दिया है। हार्ट सर्जरी करा नहीं सकती क्योंकि
सर्जरी के लिए ब्रेन में इंजेक्शन लगता है। डॉक्टरों की सलाह है कि ऑपरेशन मत
कराओ, ब्रेन में इंजेक्शन और सर्जरी के बाद कुछ नहीं कर पाओगी। अब जैसी हूं, वैसी
भली। उम्र के हिसाब से ठीक ही हूं।
आदर्श किसे मानती हैं?
पिता सुखदेव जी महाराज मेरे आदर्श और प्रेरणा-स्रोत रहे
हैं। दिलीप कुमार भी मेरे आदर्श हैं। उन्हें बहुत मानती हूं मैं।
नृत्य के अलावा क्या अच्छा लगता है?
शॉपिंग पसंद है। पुरानी और कलात्मक चीज़ें ख़रीदना अच्छा
लगता है, ख़ासतौर से राजस्थानी कला की वस्तुएं। कुछ समय पहले परफॉर्मेंस के लिए
उदयपुर गई थी, वहां ढेर सारी शॉपिंग की।
पसंदीदा जगह?
जयपुर बहुत पसंद है। आगरा भी अच्छी जगह है, ताजमहल के कारण।
लेकिन रहने के लिए मुंबई से अच्छा शहर और कोई नहीं है।
कोई अधूरी ख़्वाहिश?
इतना कुछ कर चुकी हूं कि निराशा का भाव नहीं है। कभी यह
नहीं लगता कि ये नहीं किया, वो नहीं किया। न यह सोचती हूं कि अकेली हूं। बहुत
अच्छा जीवन जिया है मैंने। संतुष्ट हूं।
इस उम्र में भी आप इतनी ऊर्जावान हैं। ख़ुद को फिट रखने के लिए क्या करती हैं?
खाने-पीने का ध्यान रखती हूं। खाना कम खाती हूं और फल
ज़्यादा। संगीत सुनती हूं।
आपके लिए ख़ुशी के क्या मायने हैं?
आज भी मेरा नृत्य अच्छा होता है, कार्यक्रम सफल होता है तो बहुत
ख़ुशी मिलती है। प्रोग्राम के बाद लोग आते हैं, ऑटोग्राफ लेते हैं, पत्र-पत्रिकाओं
में ख़बरें छपती हैं तो प्रसन्न हो जाती हूं। भगवान मेहनत का फल दे रहा है... एक
कलाकार को भला इससे ज़्यादा और क्या चाहिए!
फ़िल्में देखती हैं?
पुरानी फ़िल्में ज़्यादा देखती हूं। ‘मुग़ल-ए-आज़म’ शानदार फ़िल्म है। इससे
बेहतर फ़िल्म आज तक नहीं बनी। कभी-कभार नई फ़िल्में भी देख लेती हूं। 'जोधा अकबर' अच्छी लगी। इसे देखते हुए ‘मुग़ल-ए-आज़म’ की याद आती है। मुझे सनी देओल, जैकी श्राफ और सलमान खान जैसे रफ-टफ हीरो
अच्छे लगते हैं। शाहरुख खान की पिक्चरें पसंद हैं। सब लोग मेरा बहुत मान भी करते
हैं।
फ़िल्म इंडस्ट्री में किसी से बात-मुलाक़ात होती है?
श्यामा मेरी अच्छी सहेली है। कई पुरानी फ़िल्मों में काम
किया है उसने। कभी-कभी फोन करती हूं। समय हो तो मिलने चली जाती हूं। दिलीप कुमार
से बात होती है। वे मेरे मुंहबोले भाई हैं। उन्हें हर साल राखी बांधती हूं।
नई पीढ़ी में क्या अच्छी बात देखती हैं?
आजकल के बच्चे ‘हैप्पी गो लकी’ हैं, उनमें गंभीरता नहीं है। पहरावा अजीब है। कपड़े तन ढकने के लिए पहने जाते
हैं, लेकिन अब इसका उल्टा है।
कथक का भविष्य क्या है?
कथक का सर्वनाश हो चुका है। पहले एक बड़ा घराना बनारस हुआ
करता था। अब इतने घराने हैं कि गिनते-गिनते थक जाओ। घराना न हुआ, फैशन हो गया। अब
दिल से सीखने वाले ही कहां हैं!
नृत्य सीखने की कोई उम्र है? कुशल नृत्यांगना होने के लिए क्या ज़रूरी है?
लगन हो तो नृत्य किसी भी उम्र में सीखा जा सकता है। अच्छी
नृत्यांगना होने के लिए अच्छा स्वास्थ्य होना चाहिए। अपनी देखरेख बहुत ज़रूरी है।
लव अफेयर नहीं होना चाहिए। अगर है तो उसमें इतना न डूब जाओ कि कोई सुध-बुध न रहे, या
अपना काम न कर पाओ।
‘अहा ज़िंदगी’ के पाठकों के लिए
क्या कहेंगी?
कोई भी काम करें तो संजीदगी और मेहनत के साथ करें। जीवन का
आधा हिस्सा अपने काम के लिए समर्पित रखें। व्यर्थ की बातों में समय नष्ट करने के
बजाय नई चीज़ें सीखें।
चलते-चलते
कथक मेरी ज़िंदगी है। नृत्य के सिवा मैंने जीवन में किसी और
चीज़ को महत्व नहीं दिया। आसिफ़ साहब ने दूसरी शादियां कीं लेकिन मैं नाच में लीन
रही। उनसे मेरे झगड़े होते, कई-कई हफ्तों तक वे घर नहीं आते लेकिन मैं चुपचाप
रियाज़ करती रहती। जब लौटकर वे मुझे नाचते हुए ख़ुश देखते तो कहते कि तुम्हें कोई
मिल गया है। नाचते-नाचते मैं कहती, मेरा पहला इश्क यही है... जिसने मुझे बचाकर
रखा है।
कथक को जी रही हैं मां
हमारे घराने में पिछली कई पीढ़ियों से लड़के ही नाचते-गाते
आए हैं। लड़कियों को नौ-दस साल की उम्र के बाद बाहर नाचने की मनाही थी। मां पहली
महिला हैं जिन्होंने नृत्य का पूरा प्रशिक्षण लिया और उसे इस मुक़ाम तक पहुंचाया। मां
आज भी कथक को जी रही हैं। वे अब ज़्यादा नाच नहीं पातीं, रियाज़ नहीं कर पातीं
लेकिन बैठे-बैठे इम्प्रोवाइज़ करती रहती हैं। मेरी बेटी ऋषिका भी नृत्य सीख रही
है। अच्छा नाच लेती है वो।
-जयंतीमाला मिश्रा (सितारा देवी की बेटी)
(दैनिक भास्कर की मासिक पत्रिका 'अहा ज़िंदगी' के जुलाई 2014 अंक में प्रकाशित)