Friday, November 16, 2012

औरत की आज़ादी के मायने

आज़ादी, स्वतंत्रता, फ्रीडम... कानों में इन शब्दों के पड़ते ही एक सुखद, प्यारा-सा अहसास मन को हर्षाने लगता है। ये शब्द उस अनुभूति को परिलक्षित करते हैं जो संसार के हर इंसान को प्यारी है। क्या है यह आज़ादी, क्यों है यह इतनी प्रिय हर किसी को? और आज़ादी में भी अगर हम ख़ासकर औरतों की आज़ादी की बात करें तो क्या इसके मायने बदल जाते हैं? आज़ादी अपने-आप में एक संपूर्णता लिए हुए है, तो फिर स्त्रियों की आज़ादी की बात कहां से निकलकर आई? क्या है स्त्रियों की आज़ादी? क्या ज़रूरी है स्त्रियों की आज़ादी? और है तो, कितनी ज़रूरी है यह आज़ादी? 
उन्मुक्त आकाश में किसी आज़ाद परिंदे की परवाज़ देखिए... उससे पूछिए आज़ादी के मायने। या पिंजरे में बंद पंछी से मिलिए, उसके पंखों का संकुचन देखिए... और उससे पूछिए आज़ादी के मायने। स्वच्छंद वातावरण में रह रहे इंसान के लिए व्यापक अर्थों में आज़ादी के वही मायने होंगे, जो किसी सज़ायाफ़्ता क़ैदी के लिए हैं। पर स्वतंत्रता का अर्थ, इसकी परिभाषा सबके लिए समान नहीं है। हर इंसान के लिए स्वतंत्रता की विवेचना अलग है, उसकी प्राथमिकताएं अलग हैं। एक बच्चे के लिए आज़ादी का मतलब दिन भर खेलना-कूदना है। किसी युवा के लिए जीवन का हर फ़ैसला ख़ुद लेना आज़ादी हो सकता है तो प्रौढ़ के लिए आत्मनिर्भर बने रहना आज़ादी है। 
इसी तरह किसी पुरुष और स्त्री के लिए भी स्वतंत्रता के अर्थ भिन्न हैं। अर्थों में यह अंतर किसी व्यक्ति विशेष सोच, हालात और परवरिश के आधार पर तो है ही, कुदरती तौर पर भी है। हमारे हॉरमोन यह तय करते हैं कि हम क्या सोचते हैं, किस स्थिति में कैसे रिएक्ट करते हैं। महिलाओं के विशिष्ट हॉरमोन उन्हें भावुक बनाते हैं और यह भावुकता उनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी, क्रियाकलापों और फ़ैसलों में साफ़ झलकती है। वहीं पुरुष-विशेष हॉरमोन उन्हें ज़्यादा व्यावहारिक तथा भावनात्मक रूप से कड़ा बनाते हैं और उन्हें अपने फ़ैसलों के हर असर को तार्किक ढंग से झेलने में ज़्यादा सक्षम बनाते हैं। तो क्या दोनों के बीच यह प्राकृतिक भेद ही उनकी स्वतंत्रता की सीमाएं तय करता रहा है? क्या चिर-पुरातन समय से चला आ रहा यह विभेद असल में परिवारों के सहज अस्तित्व को और महिलाओं को भावनात्मक ठेस से बचाए रखने के लिए था, जो कालांतर में पुरुषों की वर्चस्ववादी मानसिकता के चलते भौंडी शक़्ल अख़्तियार करता गया और महिलाओं के लिए पिंजरे में बंद पंछी के जैसी छटपटाहट का सबब बनता गया? क्या यह फर्क़ धीरे-धीरे महिलाओं को दोयम दर्जे का समझकर उनकी उपेक्षा का आधार बनता चला गया? 
क्या वाकई उपेक्षित है स्त्री?
द सैकेंड सेक्स जैसी महत्वपूर्ण किताब लिखने वाली फ्रेंच लेखिका और दार्शनिक सिमोन द बोवुआ कहती हैं, आज जो स्त्रियां हमारे पद्चिन्हों पर चल रही हैं, वे लिटिल लॉयर, लिटिल ये, लिटिल वो बन रही हैं। वे कहती हैं कि एक स्त्री के लिए इतना ही बहुत है। वे और आगे जाने की कोशिश नहीं करतीं, अपने क्षेत्र में बेमिसाल होने की कोशिश... वे एक अपराध-बोध महसूस करती हैं। करियर कभी भी एक ठोस अस्तित्व वाली चीज़ नहीं होती। हमेशा यह दुविधा होती है। क्या मैं एक करियर अपनाऊं? क्या मैं घर में रहकर परिवार की देखभाल करूं? पुरुषों के लिए ऐसा कोई सवाल नहीं उठता। उनके सामने कोई दो रास्ते नहीं होते। उन्हें कोई करियर अपनाना ही होता है, उसके लिए तैयारी करनी होती है, अपने आपको पूरी लगन और मेहनत से उसमें लगाना होता है। स्त्रियां अपने आपमें ही अलग-अलग मान्यताओं में बंटी हुई हैं। फिर समाज भी उन्हें निरुत्साहित करना चाहता है। अगर वे स्वतंत्रता और किसी करियर का चुनाव करती हैं तो उन्हें एडवेंचरस या ऐसा ही कोई नाम दे दिया जाता है।
इसलिए लाज़िमी है स्त्रियों की आज़ादी
एक बेहतर दुनिया के लिए, बेहतर परिवार के लिए, अगली पीढ़ी की बेहतर परवरिश और भविष्य के लिए... कुल मिलाकर एक बेहतर जीवन के लिए ज़रूरी है कि औरत और पुरुष के अधिकारों में कोई फर्क़ नहीं समझा जाए; और इस अधिकार में सबसे पहला है- जीवन को एक इंसान के रूप में जीने का अधिकार। शारीरिक रूप से कमतर होने का अर्थ यह नहीं कि स्त्री को दबाकर रखा जाए। स्त्री, पुरुष की दासी नहीं साथी है। कुदरती विभेदों के चलते दोनों के कार्य, दोनों के उत्तरदायित्व अलग-अलग हैं, यह बात हमें समझनी ही होगी... लेकिन अपने उत्तरदायित्वों के निर्वहन के लिए जिस तरह पुरुष को जो सुविधाएं, जो अवसर मिलते हैं, वो किसी स्त्री से छीनकर उससे यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वो अपनी ज़िम्मेदारियों को सही और न्यायोचित तरीके से निभाए। किसी भी स्त्री की सबसे बड़ी भूमिका एक मां की है, और देखा जाए तो बेहद ईश्वरीय भूमिका है यह- एक बच्चे को जन्म देकर ईश्वर के एक अंश जैसा दर्जा पा जाना। एक स्त्री अपनी उस भूमिका को बेहतरीन तरीके से अंजाम दे पाए, अपनी संतान को बेहतर संस्कार देकर उसे एक अच्छा इंसान बना पाए, इसके लिए बेहद ज़रूरी है कि उसकी सोच पर कोई बंधन न हो। वो पढ़ी-लिखी है, उन व्यक्तिगत फ़ैसलों को वे खुद ले पा रही है जो परिवार के सामूहिक फैसलों से अलग हैं, हर बात या हर फ़ैसले के लिए वो पुरुष का मुंह नहीं ताकती है... तभी वो अपनी औलाद को सक्षम बना पाएगी। 
महीन रेखा है स्वतंत्रता और स्वछंदता के बीच
स्त्रियों की आज़ादी पर किसी भी बहस में पड़ने से पहले यह तय करना ज़रूरी है कि हम स्वच्छंदता की बात कर रहे हैं या स्वतंत्रता की। स्वतंत्रता सोच के स्तर पर आती है, स्वछंदता आचार-व्यवहार के स्तर पर। किसी भी समाज में, किसी भी समुदाय के अपने नियम और सीमाएं होती हैं, जो उस समाज या समुदाय के अस्तित्व के लिए प्राणवायु हैं। उसके लिए सीमाएं तय हैं- पुरुषों के लिए और स्त्रियों के लिए भी। स्वछंदता और स्वतंत्रता में महीन अंतर है। हमें यह अंतर पहचानना होगा, और यह भी ख़याल रखना होगा कि आज़ादी किसी मोड़ पर उच्छृंखलता तो नहीं बनती जा रही। अक्सर पुरुषों के साथ बराबरी करने की धुन में हम यह ख़याल नहीं रखते कि जो पुरुष कर रहा है वो सही भी है कि नहीं। किसी महिला के लिए पुरुष की हर ग़लत या अनैतिक बात की नकल करना स्वतंत्रता कतई नहीं है, बल्कि वो तो सबसे बड़ी ग़ुलामी का सूचक है। जो पुरुष कर रहा है, उसे हम भी आंख मूंदकर कर रहे हैं, तो फिर हमारी अपनी स्वतंत्र सोच कहां गई? अगर हम महिला-आज़ादी के उन नारों के पीछे लगकर कोई भी रास्ता अपना रहे हैं, जिनमें पुरुष कर सकता है तो हमें किसने रोका है की बात होती है, तो भी हम ग़ुलाम हैं। जबकि बड़ी लड़ाई इसी मोर्चे पर है कि महिलाओं को सोचने की आज़ादी मिले, वो अपना भला-बुरा सोच सकें, अपनी परिवार की बेहतरी के लिए फ़ैसले ले सकें, परिवार के फ़ैसलों में अपनी सकारात्मक राय दे सकें, कोई बात ग़लत हो रही हो तो उसका तार्किक ढंग से विरोध कर सकें।
यह सोचती हैं आज की स्त्रियां
मेघना अश्चित फ़िल्म एडिटर और लाइफ कोच हैं। मेघना का कहना है, हमारे समाज में लड़के-लड़की की परवरिश में शुरू से भेदभाव होता आया है, और आज भी हो रहा है। जब हमारे कानून में लड़का-लड़की के बीच अंतर नहीं समझा गया है तो फिर समाज के अपने क़ायदे क्योंकर हैं? मसलन, पहले लड़की की शादी हो जाने पर पैतृक संपत्ति पर उसका हक़ ख़त्म मान लिया जाता था और सारी जायदाद पर भाई का अधिकार हो जाता था। लेकिन अब भाई-बहन दोनों कानूनी रूप से पैतृक संपत्ति में बराबर के हक़दार हैं। बहन चाहे तो स्वेच्छा से अपना अधिकार छोड़ सकती है। लेकिन लड़की से आज भी यही अपेक्षा रखी जाती है कि शादी के बाद वो पैतृक संपत्ति से अपना हिस्सा नहीं मांगेगी। बहुत-से मां-बाप यह सोचते हैं कि बेटे को डॉक्टरी कराएंगे और बेटी को ग्रेजुएशन करा देंगे क्योंकि उसे शादी करके पराये घर जाना है। मेरे मां-बाप ने मुंबई जैसे शहर में मुझे एक ऐसी इंडस्ट्री में काम करने के लिए भेजा, जिसे बहुत सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता, ख़ासकर उत्तरी भारत में। अगर मैं लड़का होती तो मेरे पेरेंट्स पर वो दबाव नहीं आते, जो शुरुआत में समाज या रिश्तेदारों की ओर से आए। मैं आत्मनिर्भर बनने के लिए मुंबई आई थी। लेकिन आज यदि चाहूं कि मैं गोरखपुर, अपने घर जाकर खेत-खलिहान संभालूं, खेती करके अपनी रोज़ी-रोटी चलाऊं तो सामाजिक, वैचारिक तौर पर यह कितना मान्य होगा, कहना मुश्किल है।
मेघना आगे कहती हैं- मेरे लिए आज़ादी के मायने यह हैं कि सामाजिक रूप से मेरी जाति या वर्ण को लेकर कोई  भेदभाव न किया जाए। दिखने में मैं गोरी या सुंदर न होऊं, पर मैं आत्मविश्वास से भरी हूं। मुझे ख़ुद पर भरोसा है और मैं जानती हूं कि मैं एक अच्छी इंसान हूं। मैं चाहती हूं कि अपने जीवन को, अपने ढंग से, ईमानदारी से जी सकूं। लेकिन लड़कियों को अक्सर अपनी स्वाभाविक अभिव्यक्ति को रोकना पड़ता है। हम पर अक्सर सामाजिक दबाव होता है कि हम अपनी चीज़ों को अपने ढंग से नहीं कर सकतीं। मेरी जीवनशैली ऐसी है कि मुझे देर रात तक काम करना पड़ता है। लेकिन देर रात तक घर से बाहर रहने वाली लड़कियों को अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता। हमारे समाज में जब तक सोच के स्तर पर स्वतंत्रता नहीं आएगी, तब तक हम सही मायनों में स्वतंत्र नहीं हो सकते। 
टेलीविज़न कलाकार बीना भट्ट मानती हैं कि ज़माना काफी बदला है जैसी आज़ादी पुरुषों को दी जाती रही है, वही आज़ादी अब स्त्रियों को भी मिलने लगी है। हालांकि, वो ये भी मानती हैं कि अब भी कहीं-न-कहीं कुछ रोक, कुछ अड़चनें ज़रूर हैं। वो कहती हैं- लड़कियों को पूरी स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। किसी तरह का संशय नहीं होना चाहिए, क्योंकि औरत जानती है कि वो स्त्री है और उसे किस दायरे में रहना है। वो अपनी रक्षा ख़ुद करना जानती है। मुझे अपने परिवार में हमेशा स्वतन्त्र माहौल मिला है। हम चार बहनें हैं, और पापा को हम पर फ़ख्र है। हालांकि हमारे रिश्तेदार यह कहते रहे कि चार-चार बेटियों को किस तरह पढ़ाओगे, उनके करियर का क्या होगा, शादी कैसे होगी... पर मेरी मां इतनी साहसी हैं कि उन्होंने अपनी बेटियों के लिए वो जगह ही छोड़ दी ताकि हम पर किसी तरह का नकारात्मक असर न पड़े। एक औरत होते हुए उन्होंने इतनी हिम्मत दिखाई कि हम सब उनके कायल हैं। मैं अपने सपनों को पूरा कर पा रही हूं इसलिए मैं आज़ाद हूं। मुझे मौक़ा मिला है आगे बढ़ने का, कुछ कर दिखाने का, तो ज़ाहिर है कि मैं इस मौक़े का ग़लत फ़ायदा नहीं उठाऊंगी। मैं या मेरी बहनें ऐसा कोई काम नहीं करेंगी, जिससे मां-बाप के नाम पर बट्टा लगे। एक स्त्री होने के नाते मैं यही कहूंगी कि ख़ुद को कमतर न समझिए। आत्मसम्मान बेहद ज़रूरी है। अगर आप अपना सम्मान करेंगी त ही सामने वाला भी आपका सम्मान करेगा। आप ख़ुद को पहचानेंगी, तो लोग भी आपको पहचानने की कोशिश करेंगे। कहते हैं कि हर सफ़ल आदमी के पीछे एक औरत का हाथ होता है। कितना अच्छा हो, अगर कभी हम यह भी सुनें कि हर सफ़ल औरत के पीछे एक आदमी का हाथ है। 
दिल्ली पब्लिक स्कूल में 11वीं में पढ़ रहीं अकीक्षा शर्मा आज़ाद-ख़याल लड़की हैं। इसका सारा क्रेडिट वो अपनी परवरिश को देती हैं। अकीक्षा ख़ासतौर से अपनी मां का शुक्रिया अदा करती हैं। वे कहती हैं- मां को मुझ पर पूरा भरोसा है और मुझे यह भरोसा हर हाल में क़ायम रखना है। कभी-कभार लगता है कि मुझे थोड़ी और आज़ादी मिलनी चाहिए। जैसे, मैं जब चाहूं, अपने दोस्तों से फ़ोन पर बात कर सकूं या जब चाहूं, जहां चाहूं, घूमने जा सकूं। लेकिन आज़ादी की कोई सीमा नहीं है। मेरे लिए अहम यह है कि मैं मां-बाप से खुलकर बात कर पाती हूं, ख़ुद को एक्सप्रेस कर पाती हूं। अपने बाकी दोस्तों के मुक़ाबले मुझे काफी छूट मिली हुई है। लेकिन साथ ही साथ मुझे अपनी लिमिट्स भी अच्छी तरह मालूम हैं। 
लखनऊ की रहने वाली मानसी कुमार के लिए आज़ादी का मतलब आत्मनिर्भर होना है। मुंबई फ़िल्म इंडस्ट्री में बतौर असिस्टेंट डायरेक्टर काम कर रहीं मानसी अपने पैरों पर खड़ा होने को ज़रूरी मानती हैं। उनका कहना है- लोग कहते हैं कि औरतें आदमियों से आगे निकल रही हैं, पर मैं इस बात से इत्तिफ़ाक़ नहीं रखती। आदमी और औरत के बीच कोई होड़ नहीं चल रही है। किसी तरह का मुक़ाबला नहीं है, सिर्फ़ यह है कि हम भी कोशिश कर रही हैं आगे बढ़ने की, और पुरुष हमें आगे बढ़ने का मौक़ा दे रहे हैं, हमारा साथ दे रहे हैं। ऐसा नहीं है कि पुरुष हमसे पिछड़ रहे हैं। हम अपना काम कर रही हैं, और वो अपना। लेकिन पुरुष हो या स्त्री, हर किसी के लिए अपनी हद बनाए रखना ज़रूरी है। अगर पुरुष हैं, तो इसका मतलब यह कतई नहीं है कि आप कुछ भी करें, या अपनी सीमा भूल बैठें। स्वतंत्रता का दुरुपयोग किसी के लिए मान्य नहीं है। जहां तक एक स्त्री का सवाल है, तो उसे भी सामाजिक दायरे में रहते हुए ही अपनी क्षमताएं पहचानकर आगे बढ़ना आना चाहिए। हमारी ज़िम्मेदारी ज़्यादा इसलिए है क्योंकि जो हमारे संस्कारों में है, जो हमें सिखाया गया है, समझाया गया है उसे आगे बढ़ाने का दायित्व हम औरतों पर ही है।
सोच के स्तर पर ज़रूरी है स्वतंत्रता
हाल में दिल्ली में एक बच्ची के साथ दुर्व्यवहार की ख़बर आई थी। बच्ची के मां-बाप ने तुरंत थाने जाकर मामले की रपट कराई, क्योंकि वो चाहते थे कि गुनहगार पकड़ा जाए और उसे कड़ी सज़ा हो। लेकिन कितने मां-बाप ऐसे हैं जो ऐसी घटनाओं की सूचना पुलिस को देते हैं? मां-बाप के दिमाग में सबसे पहले यही बात आती है कि अगर दुनिया को पता चल गया तो हमारी लड़की की शादी कैसे होगी, कोई उसे अपनाएगा या नहीं। ज़रूरत इस सोच से मुक्ति पाने की है। दूसरा यह कि एक लड़की के लिए शादी आख़िरी मंज़िल नहीं है, या घर बसा लेना अंतिम सत्य नहीं है। तीसरा, इस तरह की घटनाएं एक लड़के के लिए भी उतनी ही बदकिस्मत हैं, जितनी लड़की के लिए। 
भारतीय समाज में सोच के स्तर पर परतंत्र होने का एक दुखद पहलू यह है कि एक स्त्री ही अमूमन यह सुनिश्चित कर रही है कि ये बेड़ियां क़ायम रहें। हम आए दिन मिलने वाली ऐसी ख़बरों से अछूते नहीं हैं जिसमें घर में ब्याह कर लाई लड़की पर अत्याचार के पीछे बड़ा हाथ एक सास का होता है और अक्सर घर के पुरुष अपने नए सदस्य के हक़ में खड़े दिखते हैं। एक उदाहरण इसे समझने के लिए काफी होगा। मेरे एक परिचित परिवार के इंजीनियर बेटे की शादी एक एमबीए लड़की से हुई। लड़की यूनिवर्सिटी में पढ़ी थी, जींस-टॉप पहनती थी और बाल खुले रखती थी। आते ही उसकी सास ने फ़रमान सुना दिया कि वो सलवार-कमीज़ ही पहने और बालों में तेल लगाकर रखे। उनके मुताबिक, ये सब भले घर की लड़कियों को शोभा नहीं देता था और इससे समाज में उनके सम्मान पर आंच आती थी। कुछ दिन तो लड़की ने टालने की कोशिश की, पर रोज की किचकिच से बचने के लिए उसे मन मारकर सास की बात माननी पड़ी। वो लगातार तनाव में थी और अपना दुख यहां-वहां जाकर बांटती थी। 
यहां सिमोन द बोवुआ की बात सच दिखती है कि स्त्री अगर सामने वाल की सोच से हटकर कुछ भी करती है तो उसे एडवेंचरस मान लिया जाता है। कितनी हास्यास्पद बात है कि इसमें जीवन किसी का है, और सोच किसी दूसरे की मायने रखती है। एक परिवार चाहता है कि जो लड़की ब्याहकर घर में आए वो पढ़ी-लिखी तो हो ताकि पहचान वालों पर रौब डाल सकें, लेकिन उसकी सोच यूटोपियन हो। उससे यह भी अपेक्षा नहीं है कि वो किसी मसले पर अपनी राय दे। अब भला यह कैसे संभव है कि हम रह तो आज के ज़माने में रहे हैं, लेकिन दिमाग नव-पाषाण युग में विचरण करे। ऐसी स्थिति में एक मोड़ पर स्त्रियों को ख़ुद यह सोचना होगा कि वो अपनी सोच को कितना विस्तार देना चाहती हैं।
स्लट वॉक की ज़रूरत क्यों?
स्त्रियां अपनी स्वतंत्रता, अपने अधिकारों के प्रति सहज रहकर भी जागरूक बनी रह सकती हैं। स्त्री की आज़ादी को हर बार मुद्दा बनाकर पेश किया जाए, यह कतई ज़रूरी नहीं है। स्त्री की आज़ादी या उसका हक़ वीमेन्स डे या स्लट वॉक में नहीं है। न ही यह किसी नारी मुक्ति मोर्चाया कुख्यात नारीवाद में है। सुखद बात यह है कि स्थितियां ख़ुद-ब-ख़ुद बदल रही हैं। मैं जितने परिवारों को जानती हूं, उनमें लगभग नई पीढ़ी के सभी पुरुष अपनी पत्नियों, बहनों, बेटियों के लिए यह स्वतंत्रता चाहते हैं और अपनी तरफ़ से कोशिश भी कर रहे हैं कि घर की औरतें ख़ुद को कमतर न समझते हुए पुरुषों के बराबर समझें। वो घर के कामों में हाथ बंटाते हैं, बच्चों को बड़ा करने में अपनी भूमिका निभा रहे हैं। वो तीन दशक पुराने उन पिताओं से अलग हैं जिन्हें बच्चों के नाम तक याद नहीं रहते थे... यह जानना तो दूर की बात थी कि कौन-सी औलाद क्या कर रही है। इन हालात में स्त्रियां भी इस आज़ादी को बेहद ज़िम्मेदाराना तरीके से ले रही हैं। यह ठीक है कि हमें बहुत से उदाहरण ऐसे मिलते हैं जिनमें आज़ादी के नाम पर स्त्रियों के गैर-ज़िम्मेदाराना व्यवहार की झलक मिलती है, लेकिन इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं कि सब कुछ सही नहीं चल रहा। 
स्वतंत्रता के सही मायनों को महिलाएं यूं समझ सकती हैं कि वो मां के तौर पर अपनी बेटी से क्या अपेक्षा करेंगी। जो इस सवाल का जवाब होगा, वही उचित रास्ता होगा, वो सही सोच का सूचक भी होगा, उसमें एक महिला की स्वतंत्र सोच की झलक होगी। और जब यह सोच होगी तो इसका असर आने वाली पीढ़ी के पुरुषों पर भी होगा, और वर्तमान व पुरानी पीढ़ी के पुरुषों पर भी। एक आधुनिक सोच के साथ महिलाएं, पुरुषों को सही रास्ता दिखा सकती हैं, बल्कि एक अच्छे जीवन की तरफ़ हमारी यात्रा की कमान पुरुषों के मुक़ाबले बेहतर तरीके से संभाल सकती हैं, क्योंकि उनमें एक गुण ऐसा है जो पुरुष वर्ग में न के बराबर मिलता है, और वो है संयम। संयम और स्वतंत्र सोच का युग्म यक़ीनन एक बेहतर दुनिया का निर्माण कर पाएगा... ऐसी दुनिया जिसमें हम अपने बच्चों को बड़ा होते हुए देखना चाहते हैं। 
-माधवी  

(दैनिक भास्कर की मासिक पत्रिका 'अहा ज़िंदगी' के विशेष वार्षिक अंक, 2012 में प्रकाशित; जहर दासगुप्ता, ऑनरी मातीस, अमृता शेरगिल और अमेदिओ मोदिग्लियानी की कलाकृतियां गूगल से)

5 comments:

  1. बहुत सुन्दर ढंग से प्रस्तुत

    आज़ादी के मायने ..

    निर्भर करता है, माना है इसे किस तरह,

    स्त्री पुरुष समुदाय ने। .......

    हमारे हिसाब से स्व-अनुशासित

    स्वतंत्रता ही सही स्वतंत्रता है ..

    देखा जाता है, स्वतंत्रता, स्वच्छंदता का

    उच्छृंखलता में तब्दील होना

    यह कतई स्वीकार्य नहीं है ..



    ReplyDelete
  2. ्बेहद उम्दा और विचारणीय आलेख

    ReplyDelete
  3. सार्थक और सटीक वार्ता |
    आशा

    ReplyDelete
  4. बहुत ही बढ़िया विचार यूं तो स्वतन्त्रता के विषय में सबके अपने अलग-अलग मायने हैं जिन्हें आपने यहाँ बखूबी प्रस्तुति मेरे विचार भी कुछ मिलते जुलते से ही हैं बात जब आज़ादी की हो रही है तो आज़ादी के मायने स्त्री और पुरुष दोनों के लिए ही समान है और इसमें सबसे अहम बात है की दोनों ही अपनी सीमाओं के अंदर रखकर ही अपनी आज़ादी का उपयोग करें। क्यूंकि हर चीज़ यदि एक सीमा के अंदर ही रहे तो ही ठीक रहती है वरना वो कहते है ना "अति हर चीज़ की बुरी होती है" यहाँ तक के प्यार की भी तो फिर आज़ादी की तो बात ही क्या। इसलिए एक सभ्य स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए सबसे ज़रूर है कि पहले आज़ादी शब्द के मायने पहचाने और अपने-अपने स्तर पर उसका प्रयोग करते हुए अपने जीवन में आगे बढ़ें।

    ReplyDelete

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...