(प्रख्यात बांग्ला लेखक सुनील गंगोपाध्याय, कविता जिनके लिए
प्रथम प्रेम थी, जिन्होंने कविता के लिए अमरत्व को तुच्छ माना;
यहां उनकी कविता के साथ उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि...)
हमारे बड़े विस्मयकारी दुख हैं
हमारे जीवन में हैं कई कड़वी ख़ुशियां
हमारे जीवन में हैं कई कड़वी ख़ुशियां
माह में दो-एक बार है हमारी मौत
हम लोग थोड़ा-सा मरकर फिर जी उठते हैं
हम लोग अगोचर प्रेम के लिए कंगाल होकर
प्रत्यक्ष प्रेम को अस्वीकार कर देते हैं
प्रत्यक्ष प्रेम को अस्वीकार कर देते हैं
हम सार्थकता के नाम पर एक व्यर्थता के पीछे-पीछे
ख़रीद लेते हैं दुख भरे सुख
ख़रीद लेते हैं दुख भरे सुख
हम लोग धरती को छोड़कर उठ जाते हैं दसवीं मंज़िल पर
फिर धरती के लिए हाहाकार करते हैं
फिर धरती के लिए हाहाकार करते हैं
हम लोग प्रतिवाद में दांत पीसकर अगले ही क्षण
दिखाते हैं मुस्कराते चेहरों के मुखौटे
दिखाते हैं मुस्कराते चेहरों के मुखौटे
प्रताड़ित मनुष्यों के लिए हम लोग गहरी सांस छोड़कर
दिन-प्रतिदिन प्रताड़ितों की संख्या और बढ़ा लेते हैं
दिन-प्रतिदिन प्रताड़ितों की संख्या और बढ़ा लेते हैं
हम जागरण के भीतर सोते हैं और
जागे रहते हैं स्वप्न में
जागे रहते हैं स्वप्न में
हम हारते-हारते बचे रहते हैं और जयी को धिक्कारते हैं
हर पल लगता है कि इस तरह नहीं, इस तरह नहीं
हर पल लगता है कि इस तरह नहीं, इस तरह नहीं
कुछ और, जीवित रहना किसी और तरह से
फिर भी इसी तरह असमाप्त नदी की भांति
डोलते-डोलते आगे सरकता रहता है जीवन।
(बांग्ला से अनुवाद- उत्पल बैनर्जी)
डोलते-डोलते आगे सरकता रहता है जीवन।
(बांग्ला से अनुवाद- उत्पल बैनर्जी)
बहुत खूबसरत सच्चाई को आईना दिखाती रचना |
ReplyDeleteBeautiful
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फिर भी इसी तरह असमाप्त नदी की भांति
ReplyDeleteडोलते-डोलते आगे सरकता रहता है जीवन। सब कुछ कह गयी ये पंक्तिया.......
जीवन की विडंबनाओं का साक्षात् कराता दर्पण ही सामने रख दिया है !
ReplyDeleteबहुत उम्दा रचना |
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