Wednesday, June 27, 2012

घर-बाहर

(यह कविता विष्णु नागर के संग्रह 'घर के बाहर घर' 
से और मार्क शगाल की कलाकृति 'द ब्लू बर्ड'.)
मेरा घर 
मेरे घर के बाहर भी है 
मेरा बाहर 
मेरे घर के अंदर भी 

घर को घर में 
बाहर को बाहर ढूंढते हुए 
मैंने पाया 
मैं दोनों जगह नहीं हूं।

Thursday, June 14, 2012

रिश्ता सपनों, ख़ूबसूरती और सिनेमा का-जावेद अख़्तर

(स्वप्न, सौंदर्य और सिनेमा का रिश्ता पुराना है। सपने दिल से देखे जाते हैं और ख़ूबसूरती भी वही है जो दिल को अच्छी लगे। वैसे भी, कोई व्यक्ति अपने परम स्वप्न में सुंदरता के अतिरिक्त क्या देखना चाहेगा! ...और हमारे इन्हीं स्वप्नों को सिनेमा दिखाता है, बल्कि बेहद ख़ूबसूरती के साथ बयां करता है। सिनेमा के नई ऊंचाइयां छूने की वजह भी यही है।)

सपने हैं तो उम्मीदें हैं
ज़िंदगी में ख़्वाबों की बहुत ज़रूरत है। जो ख़्वाब हम देखते हैं, वही हमारी उम्मीद बनते हैं, हमारी आरज़ू बनते हैं। वही आरज़ू हमें कोशिश करने पर मजबूर करती है। कोशिश ही हमें आगे बढ़ाती है। ज़िंदगी में आगे बढ़ने और अच्छा काम करने की शुरुआत सपनों से ही होती है।
ज़िंदगी ख़ूबसूरत हो, यह दुनिया ख़ूबसूरत हो, रिश्ते ख़ूबसूरत हों, हर पल ख़ूबसूरत हो... हर इंसान का यही एक सपना है। यह सपना शायद पूरी तरह सच न भी हो पाए, लेकिन कोशिश जारी रहनी चाहिए। कोशिश करते रहना अच्छी बात है। सपने देखना अच्छी बात है। सपने देखेंगे तभी तो वो पूरे होंगे। सपने ज़िंदगी को मक़सद देते हैं।  
ख़ूबसूरती वो है जो आंखों को अच्छी लगे और दिल को भी सुक़ून दे। कुछ चीज़ें देखने में ख़ूबसूरत होती हैं और कुछ चीज़ें व्यवहार में ख़ूबसूरत होती हैं, संस्कार में ख़ूबसूरत होती हैं। यह ज़रूरी नहीं है कि ख़ूबसूरती सिर्फ़ दिखाई दे, यह महसूस भी होती है। जो सुन्दरता व्यवहार और बातचीत में होती है, वह किसी से बात करके महसूस की जा सकती है और मैं मानता हूं कि जब एक पल या ज़िंदगी ख़ूबसूरत लगती है तो वही असल ख़ूबसूरती होती है।
ख़ूबसूरती है तो गीत हैं
एक चित्रकार चित्र के ज़रिए ख़ूबसूरती दिखाता है। कुम्हार ख़ूबसूरत घड़ा बनाकर, मूर्तिकार मूर्तियां बनाकर और एक गीतकार अपने गीतों से ख़ूबसूरती बयां करता है। सबके अपने-अपने तरीके, अपने-अपने लहज़े हैं। लहज़े भले जुदा हों लेकिन जब तक ख़ूबसूरती है तब तक गीत बनते रहेंगे और ख़ूबसूरती बयां होती रहेगी। अब कहें कि इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा...’  तो उस ख़ूबसूरती के मायने समझना आसान हो जाता है लेकिन ख़ूबसूरती कभी-कभी कुछ इस तरह भी सामने आती है... तुम अपना रंज-ओ-ग़म, अपनी परेशानी मुझे दे दो या तुम चली जाओगी, परछाइयां रह जाएंगी... या किसी की मुस्कराहटों पे हो निसार, किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार, जीना इसी का नाम है... कितने ख़ूबसूरत तरीके हैं दिल की ख़ूबसूरती बयां करने के।
ख़ूबसूरती का रिश्ता जब हम कुदरत से जोड़ देते हैं तो उसमें विस्तार पैदा होता है। कोई सुंदर चीज़ प्रकृति के साथ जुड़ते ही और सुंदर हो जाती है। इंसान की ख़ूबसूरती की बात करूं तो उसके चेहरे पर चांदनी, बालों में काली घटाएं, मुस्कुराहट में बिजलियां आने पर सुंदरता का कैनवास अपने-आप बड़ा हो जाता है। चेहरा है या चांद खिला है, ज़ुल्फ़ घनेरी शाम है क्या, सागर जैसी आंखों वाली, यह तो बता तेरा नाम है क्या... इस गीत में क़ुदरत की मदद से ख़ूबसूरती को बयां करने की कोशिश की है और यह कोशिश कामयाब हुई है। तुमको देखा तो यह ख़याल आया, ज़िंदगी धूप, तुम घना साया... एक शायर धूप-छांव का सहारा लेकर अपने जज़्बाती दिल को इस क़दर बयां कर देता है कि फिर कुछ कहने-सुनने की ज़रूरत नहीं रह जाती! 
-जावेद अख़्तर से बातचीत पर आधारित 

(दैनिक भास्कर की पत्रिका 'अहा ज़िंदगी' के जून 2012, सिनेमा विशेषांक में प्रकाशित)

Thursday, June 7, 2012

बदल रहा है सिनेमा और उसकी सुंदरता भी

(परिवर्तन संसार का नियम है तो ज़ाहिर है सिनेमा भी इस नियम से बंधकर चलेगा। सिनेमा जब से अस्तित्व में आया है, तब से इसमें निरंतर परिवर्तन होते रहे हैं। भारतीय सिनेमा के मौजूदा स्वरूप, चलन और सौंदर्य के नए मापदंडों पर फ़िल्म जगत से जुड़ी विभिन्न हस्तियों की राय...) 

श्याम बेनेगल
पिछले 8-10 वर्षों में सिनेमा में काफी बदलाव आए हैं। नए फ़िल्मकारों के पास ज़बरदस्त तकनीक है। दूसरे, उनकी स्क्रिप्ट में मौलिकता है। वे सिनेमा की समझ भी रखते हैं। युवा निर्देशक पूरी तरह प्रशिक्षित हैं, इसलिए अब वे फ़िल्म बनाते-बनाते नहीं सीखते बल्कि फ़िल्म के ग्रामर और शैली के बारे में उन्हें पहले से ही जानकारी है। इस वजह से पहली फ़िल्म से ही वे ख़ुद को एक प्रोफेशनल फ़िल्ममेकर के रूप में स्थापित कर पा रहे हैं।
1970 के दशक में जब मैंने शुरुआत की थी, तब मेनस्ट्रीम इंडस्ट्री में, जिसे आप आजकल कमर्शियल सिनेमा कहते हैं, एक ही किस्म की फ़िल्में बनती थीं। इसलिए ज़्यादा प्रयोग नहीं हो पाते थे। हमें लगता था कि फ़िल्मों में किसी किस्म की क्रिएटिविटी नहीं है, न ही विषयवस्तु है। समाज पर केंद्रित फ़िल्में भी न के बराबर बनती थीं। उस वक्त सिनेमा सिर्फ़ मनोरंजन के लिए होता था। लेकिन अब काफी प्रयोग होने लगे हैं, ख़ासतौर से एलीमेंट को लेकर। विशाल भारद्वाज, अनुराग कश्यप, विक्रमादित्य मोटवानी और दिबाकर बैनर्जी जैसे निर्देशक बेहतरीन काम कर रहे हैं।
दर्शकों का टेस्ट भी बदला है। पुरानी फ़िल्मों में सेक्स या कामेच्छा की कोई अवधारणा नहीं थी। उनमें या तो रोमांटिक लव होता था या रेप होता था। इसके विपरीत अब सिनेमा में पुरुषों की ही नहीं, महिलाओं और उनकी इच्छाओं की भी बात होने लगी है। संगीत में भी बदलाव आया है। अब जो गाने बनते हैं, वो सुनने के लिए नहीं नाचने के लिए हैं। संगीतकार इसी बात को ध्यान में रखकर गाने बना रहे हैं। लेकिन समय के साथ परिवर्तन होना ही है। हमें ख़ुद सही और ग़लत के बीच भेद करने की ज़रूरत है। 
नसीरुद्दीन शाह
मुझे नहीं लगता कि हम कुछ नया कर रहे हैं। सिनेमा जैसा पहले था, वैसा ही आज भी है। पचास साल पहले जैसी फ़िल्में बनती थीं, वही फ़िल्में दोबारा बन रही हैं बल्कि उससे भी बुरी बन रही हैं। बुनियादी फ़र्क यह है कि फ़िल्में बनाने का ख़र्च दस गुना बढ़ गया है। इसके अलावा और कोई बदलाव मुझे दिखाई नहीं देता। इंडस्ट्री वैसी ही स्टार-सेंट्रिक है। यहां पहले स्टार तय किए जाते हैं, कहानी बाद में चुनी जाती है। कला की फ़िक्र किसी को नहीं है, सब पैसा कमाने में लगे हैं। फ़िल्म इंडस्ट्री को लेकर मेरा नज़रिया बहुत आशावादी नहीं है।
ख़ूबसूरती की बात करूं तो वही फीके-से अंदाज़ हैं और वही नक़ली किस्म के किरदार हैं। इस बात से बड़ी नाउम्मीदी है मुझे। पुरानी नायिकाओं में जो बात थी वो अब नहीं है। वो दिन गए, जब एक तरफ़ वहीदा रहमान हुआ करती थीं, एक तरफ़ मधुबाला तो एक तरफ़ वैजयंती माला। तब नायिकाओं में विविधता थी। अब उनमें फ़र्क करना ही मुश्किल है। मुझे सब हीरोइनें एक जैसी लगती हैं। जहां तक सजने-धजने का सवाल है, तो वो उस वक़्त भी होता था। ये चीज़ें ज़्यादा मायने नहीं रखतीं क्योंकि ऊपरी ख़ूबसूरती हमेशा से रही है। जब तक हमारी फ़िल्मों में दम नहीं होगा, वास्तविकता नहीं होगी, तब तक सब बेमानी है।
फारुख़ शेख
सिनेमा समाज से अलग नहीं हो सकता, अलग हो जाएगा तो कामयाब नहीं होगा। तो जितना बदलाव समाज में आएगा, क़रीब-क़रीब उतना ही बदलाव सिनेमा में भी आएगा। जिस तरह ज़िंदगी की रफ़्तार बढ़ी है, उसी तरह सिनेमा में कहानी को पेश करने की रफ़्तार बढ़ी है। फ़िल्मों में नैरेशन बदला है। इसके कुछ फ़ायदे हैं तो कई नुक़सान भी हैं। अगर आप कोई संजीदा बात, ठहराव के साथ कहना चाहें तो दिक्कत होती है। हर बात को दौड़ते-भागते या हड़बड़ाहट में नहीं कहा जा सकता। ख़ासतौर से इस जल्दबाज़ी का असर पड़ता है रोमांटिक दृश्यों या गानों में। इसके लिए स्क्रीन पर वक़्त मिलना चाहिए। अब 25-50 जूनियर कलाकारों को लेकर कोई आइटम नंबर तैयार कर लिया जाता है। इससे फ़िल्मी दृश्य और गाने लिखने की क्वालिटी पर असर पड़ा है। लेकिन सिनेमा में, जोकि दुनिया का सबसे ज़्यादा महंगा आर्ट-फॉर्म है, रिस्क लेने की गुंजाइश बहुत कम होती है। हर निर्देशक यह सोचता है कि मैकडोनल्ड जैसी कोई चीज़ बना दूं, जिसमें लोग आएं, पैसे दें, और फटाफट बाइट लेकर घर जाएं। फटाफट बाइट से पेट भरता है लेकिन सेहत नहीं बनती। सेहत के लिए इत्मिनान से बैठकर पौष्टिक भोजन खाना पड़ेगा, लेकिन इत्मिनान है कहां!
तकनीकी तौर पर हमारा सिनेमा मज़बूत हुआ है। आर्थिक रूप से भी हम समृद्ध हुए हैं। आज हमारे पास बड़े बजट में अंतरराष्ट्रीय स्तर की फ़िल्में बनाने की कुव्वत है। हिन्दुस्तानी सिनेमा को अंतरराष्ट्रीय पहचान मिलने लगी है। अब चीन जैसे देश में हिन्दुस्तानी फ़िल्में दिखाई जा रही हैं। उन्हें लोकल ज़बान में डब करके या सबटाइटल्स के साथ पेश किया जाता है। किसी ज़माने में सुनते थे कि राजकपूर या मिथुन चक्रवर्ती साहब की फ़िल्में कभी-कभार बाहर के मुल्कों में दिखाई जाती थीं। आज दुनिया के तक़रीबन हर हिस्से में हिन्दुस्तानी फ़िल्में दिखाई जा रही हैं और पसंद भी की जा रही हैं।
जबसे इंसान की नस्ल पैदा हुई है, तब से ख़ूबसूरती के मायने बदलते रहे हैं। किसी ज़माने में अच्छी-ख़ासी, मज़बूत औरतें ख़ूबसूरत मानी जाती थीं, जिन्हें देखकर लगता था कि उनमें कुछ जान है। फिर एक दौर ऐसा आया कि एकाध किलो वज़न भी ज़्यादा होता तो वो औरत ख़ूबसूरती के दायरे से बाहर मान ली जाती। फिर यह सिलसिला शुरू हुआ कि इतना पतला दिखना भी ज़रूरी नहीं है कि इंसान हड्डियों का ढांचा लगने लगे। यह वैसा है जैसे हर 2-4 महीने में एक लिस्ट छप जाती है कि दुनिया की सबसे हसीन 10 औरतें कौन-सी हैं! या हिन्दुस्तान की सबसे बेहतरीन 5 औरतें कौन-सी हैं! असल में यह मीडिया का तरीका है दिलचस्पी पैदा करने का। जो ख़ूबसूरती मधुबाला, मीना कुमारी या नर्गिस में थी वो अब दुर्लभ है। लेकिन अगर बुनियादी तौर पर आप दिखने में ठीक-ठाक हैं, और थोड़े आकर्षक हैं तो आप ख़ूबसूरती के दायरे में हैं। और यदि आपका समूचा व्यक्तित्व अच्छा है तो आप स्क्रीन पर भी ख़ूबसूरत नज़र आते हैं।
डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी
सिनेमा में सौंदर्यबोध प्राचीन काल से है। नाट्यशास्त्र में भी इस बात की पुष्टि की गई है कि अभिनेता और अभिनेत्री, दोनों को सुंदर होना चाहिए। यह मांग नाटकों के दौर से है। नाटक ही बाद में दृश्य और श्रव्य माध्यमों से विकसित होता हुआ सिनेमा तक पहुंचा है। हां, सौंदर्यबोध पर पश्चिम का प्रभाव ज़रूर है, जो समय-समय पर बदलता रहता है। यह बदलाव अब सिनेमा में ज़्यादा दिखाई देने लगा है, जैसे बिल्कुल पतला दिखने की चाह या फिर वेशभूषा में बदलाव। ग्लोबलाइज़ेशन के कारण पश्चिम का प्रभाव ज़्यादा पड़ा है। इंटरनेट, फेसबुक जैसे माध्यमों से एक-दूसरे के साथ संस्कृति और विचारों का आदान-प्रदान तीव्र होने लगा है।
आज़ादी के बाद जो फ़िल्में बनीं, वो भारतीय जड़ों से जुड़ी हुई थीं क्योंकि उनमें ग्रामीण भारत था, अर्धशहरी भारत था। इसलिए उन फ़िल्मों में हम वो सारे बिंब देख रहे थे जो हमने अपनी माताओं या नानियों-दादियों में देखे हैं। मसलन, आज से 10-15 साल पहले की फ़िल्मों में हमने मां या दादी के बाल सफ़ेद देखे होंगे। लेकिन आज के सिनेमा या टेलीविज़न पर हमें मांओं-दादियों के बाल सफ़ेद नहीं दिखेंगे। यह लॉरियल जैसे ब्रांडों की महिमा है। जिस तरह निरंतर युवा बने रहने की आकांक्षा लोगों में विकसित की जा रही है, उसी का प्रभाव है सब! आने वाली पीढ़ी शायद पोपले मुंह वाली नानी या सन जैसे सफेद बालों वाली दादी की कल्पना नहीं कर पाएगी।
सिनेमा की मांग अलग हो गई है। अब हम एक ऐसे विश्व की रचना करना चाहते हैं जिसका यथार्थ से संबंध न हो। इस पर बार-बार यह कहा जाता है कि जीवन में बहुत सारे दुख हैं, ग़रीबी है, अभाव है, निराशा है, आख़िर ये सब सिनेमा में क्यों दिखाया जाए?
चलन हमेशा बदलते हैं। सिनेमा में भी यही बात लागू होती है। जब अमिताभ बच्चन का उदय हुआ तो कानों पर बाल रखने का फैशन आ गया, अब छोटे बालों का दौर है। पहले नायिकाएं कम-से-कम मेक-अप करती थीं, अब होंठ और बाल रंगने से लेकर आर्टिफिशियल पलकें लगाने का फैशन चल पड़ा है।
नंदिता दास 
जब मैं छोटी थी तो लोग अक़सर मुझे कहते कि अरे, तुम तो ज़रा भी गोरी नहीं हो, या फिर तुम्हारे नैन-नक्श तो अच्छे हैं लेकिन रंग साफ़ नहीं है। मैं माता-पिता की आभारी हूं क्योंकि इन बातों से न तो उन पर कभी असर हुआ, और न ही उन्होंने मुझे कभी ऐसी टिप्पणियों से प्रभावित होने दिया। माता-पिता के सकारात्मक रवैये के कारण ही मैं इस मुकाम पर हूं जहां मुझे अपने गोरे न होने पर रत्ती भर भी शर्मिन्दगी नहीं है। बल्कि इस मामले में तो मैं ख़ुद को सौभाग्यशाली मानती हूं। 
भारतीय सिनेमा में सौंदर्य के मापदंडों में श्वेतवर्णी होना पहली शर्त है। या कहूं कि जो गोरे दिखते हैं, आमतौर पर उन्हें ही सुंदर समझा जाता है। मुझे यह देखकर हैरानी होती है कि फेयरनेस क्रीम बनाने वाली कुछ कंपनियां इस धारणा का भरपूर फ़ायदा उठा रही हैं। जब कोई सेल्सगर्ल मेरे पास ऐसी क्रीम बेचने के लिए आती है या फिर सैलून में मुझे ब्लीच करने की सलाह दी जाती है तो मैं उन्हें अच्छा-ख़ासा लेक्चर दे बैठती हूं। इसके साथ ही यह कहना भी नहीं भूलती कि फ़िल्मों में हम ‘काले हैं तो क्या हुआ, ज़िंदगी में तो दिलवाले हैं’! 
प्रसून जोशी
सिनेमा की तकनीक और प्रचार-प्रसार में बड़ा परिवर्तन आया है। आजकल पिक्चरों की पोस्ट-प्रोडक्शन पर बहुत ध्यान दिया जाता है। भरपूर मार्केटिंग होती है, गाने यू-ट्यूब पर डाले जाते हैं ताकि फ़िल्म का ज़्यादा-से-ज़्यादा प्रचार हो सके। फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स का सहारा लिया जाता है। आज आप कुछ भी कल्पना कर लें, स्पेशल इफेक्ट्स की मदद से उसे मूर्त रूप दिया जा सकता है। अवतार जैसी फ़िल्में इसी उम्दा तकनीक की देन हैं। ऐसा पहले कहां संभव था! पहले किसी जानवर को फ़िल्माना होता था तो कसरत हो जाती थी। आज किसी विचित्र जीव की कल्पना करके उसे झट से कंप्यूटर पर तैयार कर लिया जाता है।
एक और नई चीज़ चलन में आई है...रिसर्च। पहले फ़िल्म के दौरान कोई इस बात की परवाह नहीं करता था कि फ़िल्म लोगों को पसंद आएगी या नहीं। हालांकि मन में यह बात ज़रूर होती होगी, लेकिन उसे लेकर कोई कुछ करता नहीं था। आज फ़िल्म आधी शूट होते ही उसे जानकार लोगों को दिखाया जाता है। यह मार्केट रिसर्च है। लोगों के पॉइंट-ऑफ-व्यू को गंभीरता से लिया जाता है। मार्केटिंग पर ख़ास तवज्जो दी जाती है इसीलिए आमिर ख़ान देश के चप्पे-चप्पे में वेश बदल कर घूमते दिखाई देते हैं। 
पहले फ़िल्म बनाने का प्रेशर कम था। अब फ़िल्मकार पर बाज़ार का प्रेशर है। पहले मनोरंजन के साधन भी कम थे। मुझे याद है कि हमारे शहर में जो थियेटर था, उसमें जो भी फ़िल्म लगती थी, हम उसे देखने ज़रूर जाते थे। अब लोग रिव्यू पढ़कर फ़िल्म देखने जाते हैं। और मनोरंजन के लिए अब आम आदमी केवल फ़िल्मों पर आश्रित नहीं है, उसके पास तमाम दूसरे साधन हैं दिल बहलाने के लिए।
संगीत में बदलाव आया है। बहुत-से लोग कंटेट पर ध्यान देने लगे हैं। क्या कहा जा रहा है, इस बात पर ध्यान देना ज़रूरी है भी, क्योंकि गाने वही अमर होते हैं जिनमें कोई बात कही गई होती है। यह नहीं है कि हर दम कोई संजीदा बात ही की जाए, वो चाहे हर फ़िक्र को धुएं में उड़ाता चला गया जैसी बात हो लेकिन कुछ बात तो होनी चाहिए।
सौंदर्य के मापदंड भी बदले हैं। हर युग में सौंदर्य की नई परिभाषाएं आती हैं। सामूहिक अवचेतन इस बात को समझता है कि कौन-सी चीज़ सुंदर है और कौन-सी असुंदर। आप देखेंगे कि इटली में रेनेसां के दौरान जो भी पेंटिग्स बनाई गईं, उनमें स्त्रियों का मांसल रूप था। उस वक़्त वही सौंदर्य माना जाता था। अब साइज़ ज़ीरो का फैशन है। पहले सौंदर्य के मापदंडों में चेहरा, आंखें और हाव-भाव महत्वपूर्ण थे। अब भाव की संस्कृति नहीं, शरीर की संस्कृति की तरफ़ झुकाव है। हमारे देश में तक़रीबन हर प्रांत के भोजन में कार्बोहाइड्रेट्स बहुत मायने रखते हैं लेकिन अब नो कार्ब डाइट का ट्रेंड है। ये सब पश्चिम से आई चीज़ें हैं।
जब खोसला का घोंसला, ओए लक्की, लक्की ओए और लव, सेक्स और धोखा फ़िल्में आई थीं, तब मैंने यह नहीं सोचा था कि कुछ नया करना है पर बाद में इस तरह के प्रयोग आम हो गए। आजकल जिस तरह का सिनेमा है या फ़िल्मी व्यवसाय जो रूप पकड़ रहा है, उस हिसाब से ऐसी फ़िल्में बनाना अब थोड़ा आसान हो गया है। आज से 20 साल पहले कोई फ़िल्मकार, चाहे वो कितना ही प्रगतिवादी या अलग सोच वाला निर्देशक क्यों न हो, इस तरह की फ़िल्म बनाने की कोशिश भी करता तो कामयाब नहीं हो पाता। आजकल निर्देशकों को मौके मिल रहे हैं और मैं ख़ुद को ख़ुशकिस्मत मानता हूं कि मैं मौकों का फ़ायदा उठा पा रहा हूं।
अब प्रयोग सफ़ल हो रहे हैं, समालोचकों या प्रशंसकों की दृष्टि से ही नहीं, बल्कि व्यावसायिक दृष्टि से भी। यह मल्टीप्लेक्स सिनेमा और फ़िल्मों की अच्छी डिस्ट्रीब्यूशन के कारण संभव हुआ है। अगर हम फ़िल्म के बजट में थोड़ी सावधानी बरतते हुए उसे कंट्रोल कर लें तो व्यावसायिक रूप से फ़िल्म ज़रूर सफल हो सकती है। लोगों का सिनेमा पर विश्वास बढ़ा है, उनकी थियेटर में जाने की उमंग भी बढ़ी है क्योंकि अब थियेटर मॉल्स के अंदर होते हैं। मल्टीप्लेक्स में एक-साथ 4-5 फ़िल्में चल रही होती हैं इसलिए दर्शकों के पास विकल्प हैं।
मेरी फ़िल्म शंघाई इसी विषय पर है। यह फ़िल्म मध्यम वर्ग, जो सबसे जागरूक दर्शक वर्ग है उसे ही सबसे ज़्यादा प्रभावित करेगी क्योंकि जिस मॉल या मल्टीप्लेक्स को हम प्रगति की पराकाष्ठा मानते हैं, उस प्रगति के आस-पास के विवाद पर ही फ़िल्म का दारोमदार है। आप शंघाई देखेंगे तो कहेंगे कि यह फ़िल्म हमें झकझोरने के लिए ही है। पहले इस तरह के कथानक पर फ़िल्म बनाने की हिम्मत नहीं होती थी क्योंकि डर था कि अगर दर्शक को हमारा प्रतिवाद अच्छा नहीं लगा तो कोई फ़िल्म देखेगा नहीं। लेकिन शंघाई का प्रोड्यूसर भी मैं ख़ुद हूं तो कह सकता हूं कि फ़िल्म का कथानक चाहे जितना भी प्रतिवादी हो, इसमें मनोरंजन है, अच्छी स्टार-कास्ट है, कहानी है और इसे अच्छी तरह डिस्ट्रीब्यूट भी किया गया है। और यह इसीलिए मुमकिन हो पाया है क्योंकि आजकल मार्केटिंग के तरीकों से किसी भी फ़िल्म को मुनाफ़ा बटोरने के उपाय मिल जाते हैं।
सिनेमा में ख़ूबसूरती के मायने वैसे ही बदले हैं, जैसे समाज में इसके मायने बदले हैं। एक समय था जब नाज़ुक, सिमटी-लजाई हुई एक स्त्री को सुंदर कहा जाता था, आज शीला की जवानी का दौर है जिसे सुंदर माना जा रहा है। जिसे हम सिनेमा में सुंदर मान रहे हैं, उसे समाज भी सुंदर मान रहा है। मेरे ख़याल से ख़ूबसूरती का नया मापदंड है, निर्देशक और दर्शक की दृष्टि के बीच का मेल या समझौता।
जब समाज में बदलाव होता है तो कुछ नई चीज़ें अपने-आप आ जाती हैं। ऐसे में जो पुराने तरीके होते हैं, उनका पुनरावलोकन ज़रूरी हो जाता है। आजकल जिस तरह की फ़िल्में बन रही हैं, वो बहुत कामयाब हो रही हैं, जैसे पान सिंह तोमर या विक्की डोनर। ऐसा नहीं है कि पहले अलग विषयों पर फ़िल्में नहीं बनती थीं, लेकिन तब दुराव-छुपाव का एक पर्दा होता था। अब सिनेमा ऐसे ट्रैक पर है जहां वो सामाजिक पर्दों को भेदने की लगातार कोशिश कर रहा है। 
पहले फ़िल्मों में भारतीय समाज की गहरी छाप होती थी। अब हमारी भारतीयता, मेट्रो में अलग है और गांवों में अलग। गांव के परिवार और महानगर के परिवार में फर्क है, उनकी समस्याओं में फर्क है, यहां तक कि उनके रिश्तों के मायनों में भी फर्क है। यह अन्तर अब सिनेमा में दिखाई देने लगा है। संगीत के स्तर पर भी बहुत बदलाव आया है। पहले फ़िल्मों में जो गाने होते थे, वो बहुत ज़्यादा भारतीय होते थे। गानों का झुकाव शास्त्रीय संगीत की तरफ होता था। अब शास्त्रीय संगीत वाला कोई गाना आ जाए तो वो फ़िल्म में आइटम नंबर की तरह लगता है।
ख़ूबसूरती के प्रति भी हमारा दृष्टिकोण बदला है। इसे हम ख़ूबसूरती में बदलाव नहीं, बल्कि अपने नज़रिए में बदलाव कह सकते हैं। मुझे लगता है किसी ख़ूबसूरत चीज़ को मायने भी हम ही देते हैं। कोई चीज़ कितनी ख़ूबसूरत है, यह सिर्फ़ नज़रिए की बात है। जिस वस्तु में हमें सत्यता दिखाई देती है, वो सुक़ून देती है। और जिसमें सुक़ून है, उसमें ख़ूबसूरती है। ख़ूबसूरती के विषय को मैं यह कहकर सतही नहीं बनाना चाहता कि पुराने ज़माने में किस तरह की नायिकाएं होती थीं और अब क्या फर्क दिखता है। मुद्दे की बात यह है कि समाज बदलने के साथ ख़ूबसूरती के मायने में भी बदलाव आया है, जो लाज़िमी है। वैश्वीकरण के दौर में ख़ूबसूरती के प्रति हमारा दृष्टिकोण बदला है। अब ख़ूबसूरती का मतलब यह है कि जो हमारे मुल्क में ख़ूबसूरत है, उसे दूसरे मुल्कों में भी ख़ूबसूरत माना जाए।
सुधीर मिश्रा
सिनेमा के हर दौर में कुछ-न-कुछ नया होता ही है। सिनेमा एक विरासत की तरह है, जो मुसलसल चलती रहने वाली चीज़ है। जो आज है, ज़रूरी नहीं है कि वो आधुनिक है; या जो कल था, ज़रूरी नहीं है कि वो पुराना हो। मुझे मुगल-ए-आज़म जैसी फ़िल्में आज भी बहुत प्रगतिशील लगती हैं। बिमल रॉय, सत्यजीत रे और ऋत्विक घटक के सिनेमा को देखिए, वो आज भी उतना ही मॉडर्न लगता है। उसी चलन में आधुनिक सिनेमा की भी अपनी पकड़ है। आज सिनेमा में काम करने वाले हर शख़्स के पास अपने विचार हैं, अपनी बुद्धि है। जो फ़िल्म बिरादरी से ताल्लुक नहीं रखते, वो बाहर से आकर भी इस माध्यम में अपनी पैठ बनाने में सफल रहे हैं। उनका नज़रिया निर्देशन या कहानी-कथा को लेकर ही अलग नहीं, बल्कि तकनीक और अंदाज़-ए-बयां को लेकर भी अलग है। अब हमारा जीवन अव्यवस्थित है और यही फ़िल्मों में दिखता है। आज और कल के सिनेमा में फर्क सिर्फ़ इतना है कि अब धुंधलापन ज़्यादा है। लोगों का यकीन हिल चुका है। निर्देशक इसी से जूझ रहा है। एक तरफ यह है कि कुछ नहीं है, सब ऊल-जुलूल है। उछलो-कूदो, गाओ, नाचो, बेवकूफी की हरकतें करो, द्विअर्थी संवाद बोलो और पैसे कमाओ। अच्छा-बुरा कुछ नहीं है... यह हिली हुई आस्था का ही नतीजा है न? लेकिन वो निर्देशक भी हैं जो कुछ कहानियां सुनाना चाह रहे हैं, जिनकी अपनी समझ है। एक तरफ राजकुमार हीरानी है, सुधीर मिश्रा है, एक तरफ दिबाकर बैनर्जी है, तो एक तरफ अनुराग कश्यप है। सब लोग अपने-अपने ढंग से जूझ रहे हैं। लोगों से प्यार से पेश आओ, जादू की झप्पी दो, यह राजकुमार हीरानी का विचार है। कोई किसी से प्यार नहीं करता... यह अनुराग कश्यप का नज़रिया है। 
यही नज़रिया ख़ूबसूरती पर भी लागू होता है। हर दौर में सिनेमा को ख़ूबसूरती को अलग तरीके से डिफाइन किया गया है। आज की बात करूं तो थोड़ी फ्रैंकनेस आई है। लेकिन अभी भी औरत की कहानियां मर्द ही सुना रहे हैं। ऐसा नहीं है कि यह मर्द नहीं कर सकते, या ऐसा उन्हें नहीं करना चाहिए, पर सिनेमा में औरत को मुकम्मल आज़ादी मिलना बाकी है। हालांकि विद्या बालन और चित्रांगदा सिंह जैसी आधुनिक अभिनेत्रियों ने इस ट्रेंड को काफी हद तक बदला है। सतही सौंदर्य से हटकर, औरत की ख़ूबसूरती के जो दूसरे आयाम हैं, उन पर धीरे-धीरे ही सही, लेकिन काम हो रहा है।

(दैनिक भास्कर की पत्रिका
'अहा ज़िंदगी' के जून 2012, सिनेमा विशेषांक में प्रकाशित
, नंदिता दास का चित्र सुचरिता राव के सौजन्य से)
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