Tuesday, November 30, 2010

ब्रह्माण्ड के छोर पर

ब्रह्माण्ड के छोर पर
लटकी हूं मैं
बेसुर गाती
चीखकर बोलती
ख़ुद में सिमटी हुई
ताकि गिरने पर लगे न चोट

गिर जाना चाहिए मुझे
गहरे अंतरिक्ष में
आकार से मुक्त और
इस सोच से भी कि
लौटूंगी धरती पर कभी
दुखदायी नहीं है यह

चक्कर काटती रहूंगी मैं
उस ब्लैक होल में
खो दूंगी शरीर, अंग
तेज़ी से
आज़ाद रूह भी अपनी

अगली आकाशगंगा में
उतरूंगी मैं
अपना वजूद लिए
लगी हुई ख़ुद के ही गले
क्योंकि
मैं तुम्हारे सपने देखती हूं। 


-Translation of one of the love poems by African-American poet Nikki Giovanni

Wednesday, November 24, 2010

उम्दा ऑमलेट लिखा मैंने

उम्दा ऑमलेट लिखा मैंने
खाई एक गरम कविता
तुमसे प्रेम करने के बाद

गाड़ी के बटन लगाए
और कोट चलाकर मैं
घर पहुंची बारिश में
तुमसे प्रेम करने के बाद

लाल बत्ती पर चलती रही
रुक गई हरी होते ही
झूलती रही बीच में कहीं
यहां कभी, वहां भी
तुमसे प्रेम करने के बाद

समेट लिया बिस्तर मैंने
बिछा दिए अपने बाल
कुछ तो गड़बड़ है
लेकिन मुझे नहीं परवाह

उतारकर रख दिए दांत
गाउन से किए गरारे
फिर खड़ी हुई मैं
और
लिटा लिया ख़ुद को
सोने के लिए
तुमसे प्रेम करने के बाद।
(अनुवाद- माधवी)

-Translation of one of the love poems by African-American poet Nikki Giovanni

Monday, November 22, 2010

क्योंकि मैं हूं

मैं आदि हूं, अंत हूं
पूज्य मैं, तिरस्कृत भी
वैश्या हूं, साध्वी भी 

पत्नी हूं
भंग नहीं हुआ 
कौमार्य जिसका 

मां हूं, बेटी हूं
बल हूं अपनी मां का 

कई औलादों के बाद भी बंजर 
विवाहिता कुंवारी हूं मैं 

जन्मदात्री, नहीं गुज़री जो
प्रजनन की क्रिया से कभी 

मैं ढाढ़स 
प्रसव पीड़ा के बाद का
पत्नी हूं, मैं पति भी
मेरे मर्द ने किया है
सृजन मेरा 

पिता की मां हूं
बहन पति की
वही है मेरा 
बहिष्कृत पुत्र भी 

मेरा सम्मान करो
क्योंकि
शर्मनाक हूं मैं
और
शानदार भी।


-Translated from 'Eleven Minutes' by Paulo Coelho

Saturday, November 13, 2010

मुश्किलें हज़ार हैं

लिखने को बहुत कुछ था
लिखने बैठी तो कुछ नहीं

है मुश्किल 
खटखटाते रहना
दरवाज़े उलझे मन के
परत-दर-परत 
बेधड़क

है मुश्किल
जवाब न मिलने पर
घुस जाना ज़बरन 
निकालना ख़यालों की
दो-चार क़तरन 
और चिपका देना 
किसी सफ़्हे पर 
साफ़गोई से

है मुश्किल
बेतरतीब, बेअदब लफ्ज़ों को
समझा-बुझाकर 
सभ्य बनाना और 
पहना देना ख़याली जामा
नफ़ासत के साथ

है मुश्किल
बनाना क़ाबिल
उस क़तरे को इतना
कि हर्फ़ों में सिमटा 
लांघ जाए वो
वक़्त, मुल्क और 
सरहदों को

है मुश्किल लिखना 
उससे भी मुश्किल है
लिखना ख़ुद को

मुश्किलें हज़ार हैं
कोशिशें पुरज़ोर। 

('लमही' के अप्रैल-जून 2011 अंक में प्रकाशित)
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