Wednesday, July 7, 2010

उसने कहा था

पं चन्द्रधर शर्मा गुलेरी
                   (1883-1922)
   
(आज गुलेरी जयंती है। आज, 7 जुलाई को पंडित चन्द्रधर शर्मा गुलेरी का जन्म हुआ था। गुलेरी जी हिन्दी कहानी के जनक माने जाते हैं। उन्होंने कई कहानियां लिखीं, मगर हिन्दी कथा के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुई 'उसने कहा था'। सन् 1960 में निर्माता बिमल राय इसी नाम से मोनी भट्टाचार्य के निर्देशन में फ़िल्म बना चुके हैं, जिसमें सुनील दत्त और नंदा ने काम किया है। 
हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा ज़िले के गुलेर गांव में गुलेरी जी का पैतृक आवास है। हिमाचल सरकार का भाषा एवं संस्कृति विभाग हर साल शिमला में गुलेरी जयंती का आयोजन करता है। पिता जी के साथ मुझे कई बार इस आयोजन में जाने का अवसर मिला। उनकी कालजयी रचना को यहां साझा कर रही हूं। ब्लॉग के माध्यम से गुलेरी जी को श्रद्धांजलि देने की छोटी-सी कोशिश भर है।)                                         

 (1)
बड़े-बड़े शहरों के इक्के-गाड़ी वालों की जबान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बूकार्ट वालों की बोली का मरहम लगावें। जबकि बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ चाबुक से धुनते हुए इक्के वाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट संबंध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आंखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अंगुलियों के पोरे को चीथकर अपने ही को सताया हुआ बताते हैं और संसार-भर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों में, हर-एक लड्ढी वाले के लिए ठहरकर, सब्र का समुद्र उमड़ा कर, ‘बचो, खालसाजी', 'हटो भाई जी', 'ठहरना भाई जी', 'आने दो लाला जी', 'हटो बा'छा' कहते हुए सफेद फेंटों, खच्चरों और बत्तकों, गन्ने और खोमचे और भारे वालों के जंगल में से राह खेते हैं। क्या मजाल है कि जी और साहब बिना सुने किसी को हटना पड़े। यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती ही नहीं; चलती है पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई। यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती, तो उनकी बचनावली के ये नमूने हैं- 
हट जा, जीणे जोगिए; हट जा, करमां वालिए; हट जा, पुत्तां प्यारिए; बच जा, लंबी वालिए। समष्टि में इसका अर्थ है कि तू जीने योग्य है, तू भाग्यों वाली है, पुत्रों को प्यारी है, लंबी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहिये के नीचे आना चाहती है? बच जा। 
ऐसे बम्बूकार्ट वालों के बीच में होकर एक लड़का और एक लड़की चौक की एक दुकान पर आ मिले। उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिख हैं। वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था और यह रसोई के लिए बड़ियां। दुकानदार एक परदेसी से गुथ रहा था, जो सेर-भर गीले पापड़ों की गड्डी को गिने बिना हटता न था।
''तेरे घर कहां है?''
''मगरे में; और तेरे?''
''मांझे में, -यहां कहां रहती है?''
''अतरसिंह की बैठक में; वेह मेरे मामा होते हैं।''
''मैं भी मामा के आया हूं, उनका घर गुरु बजार में है।''
इतने में दुकानदार निबटा, और इनका सौदा देने लगा। सौदा लेकर दोनों साथ-साथ चले। कुछ दूर जा कर लड़के ने मुस्करा कर पूछा, ''तेरी कुड़माई हो गई?''
इस पर लड़की कुछ आंखें चढ़ा कर 'धत्' कह कर दौड़ गई और लड़का मुंह देखता रह गया।
दूसरे-तीसरे दिन सब्जीवाले के यहां या दूधवाले के यहां अकस्मात् दोनों मिल जाते। महीना-भर यही हाल रहा। दो-तीन बार लड़के ने फिर पूछा,
‘तेरी कुड़माई हो गई?’
और उत्तर में वही 'धत्' मिला। एक दिन जब फिर लड़के ने वैसे ही हंसी में चिढ़ाने के लिये पूछा तो लड़की, लड़के की संभावना के विरूद्ध बोली, ''हां, हो गई।''
''कब?''
''कल, देखते नहीं, यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू।'' लड़की भाग गई। लड़के ने घर की सीध ली। रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छावड़ी वाले की दिन-भर की कमाई खोई, एक कुत्ते पर पत्थर मारा और एक गोभीवाले के ठेले में दूध उंडेल दिया। सामने नहाकर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अंधे की उपाधि पाई। तब कहीं घर पहुंचा। 

(2)
“राम-राम, यह भी कोई लड़ाई है! दिन-रात खंदकों में बैठे हड्डियां अकड़ गईं। लुधियाना से दस गुना जाड़ा और मेंह और बरफ ऊपर से। पिंडलियों तक कीचड़ में धंसे हुए हैं। गनीम कहीं दिखता नहीं - घंटे-दो-घंटे में कान के परदे फाड़ने वाले धमाके के साथ सारी खंदक हिल जाती है और सौ-सौ गज धरती उछल पड़ी है।
इस गैबी गोले से बचे तो काई लड़ै। नगरकोट का जलजला सुना था, यहां दिन में पचीस जलजले होते हैं। जो कहीं खंदक से बाहर साफा या कुहनी निकल गई, तो चटाक् से गोली लगती है। न मालूम बेईमान मट्टी में लेटे हुए हैं या घास की पत्तियों में छिपे रहते हैं।”
“लहनासिंह, और तीन दिन हैं। चार तो खंदक में बिता ही दिये। परसों रिलीफ आ जायेगी और फिर सात दिन की छुट्टी। अपने हाथों झटका करेंगे और पेट-भर खाकर सो रहेंगे। उसी फरंगी मेम के बाग में- मखमल का-सा हरा घास है। फल और दूध की वर्षा कर देती है। लाख कहते हैं, दाम लेती नहीं। कहती है, तुम राजा हो, मेरे मुल्क को बचाने आये हो।”
“चार दिन तक एक पलक नींद नहीं मिली। बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है और बिना लड़े सिपाही। मुझे तो संगीन चढ़ाकर मार्च का हुकम मिल जाए। फिर सात जरमनों को अकेला मारकर न लौटूं तो मुझे दरबार साहब की देहली पर मत्था टेकना नसीब न हो। पाजी कहीं के, कलों के घोड़े - संगीन देखते ही मुंह फाड़ देते हैं, और पैर पकड़ने लगते हैं। यों अंधेरे में तीस-तीस मन का गोला फैंकते हैं। उस दिन धावा किया था - चार मील तक एक जर्मन नहीं छोडा था। पीछे जनरल ने हट आने का कमान दिया, नहीं तो...”
“नहीं तो सीधे बर्लिन पहुंच जाते! क्यों?” सूबेदार हजारासिंह ने मुस्कराकर कहा- “लड़ाई के मामले जमादार या नायक के चलाये नहीं चलते। बड़े अफसर दूर की सोचते हैं। तीन सौ मील का सामना है। एक तरफ बढ़ गए तो क्या होगा?”
“सूबेदार जी, सच है,” लहनसिंह बोला- “पर करें क्या? हड्डियों-हड्डियों में तो जाड़ा धंस गया है। सूर्य निकलता नहीं और खाई में दोनों तरफ से चंबे की बावलियों के-से सोते झर रहे हैं। एक धावा हो जाए तो गरमी आ जाए।”
“उदमी, उठ, सिगड़ी में कोले डाल। वजीरा, तुम चार जने बाल्टियां लेकर खाई का पानी बाहर फेंको। महासिंह, शाम हो गई है, खाई के दरवाजे का पहरा बदला दो।” कहते हुए सूबेदार खंदक में चक्कर लगाने लगे।
वजीरासिंह पलटन का विदूषक था। बाल्टी गंदला पानी भर कर खाई के बाहर फेंकता हुआ बोला- “मैं पाधा बन गया हूं। करो जर्मनी के बादशाह का तर्पण!” इस पर सब खिलखिला पड़े और उदासी के बादल फट गये।
लहनासिंह ने दूसरी बाल्टी उसके हाथ में भरकर देकर कहा - “अपनी बाड़ी के खरबूजों में पानी दो। ऐसा खाद का पानी पंजाब-भर में नहीं मिलेगा।”
“हां, देश क्या है, स्वर्ग है। मैं तो लड़ाई के बाद सरकार से दस घुमा जमीन यहां मांग लूंगा और फलों के बूटे लगाऊंगा।”
“लाड़ी होरां को भी यहां बुला लोगे? या वही दूध पिलाने वाली फरंगी मेम...”
“चुप कर। यहां वालों को शरम नहीं।”
“देस देस की चाल है। आज तक मैं उसे समझा न सका कि सिख तमाखू नहीं पीते। वह सिगरेट देने में हठ करती है, ओठों में लगाना चाहती है, और मैं पीछे हटता हूं तो समझती है कि राजा बुरा मान गया, अब मेरे मुल्क के लिये लड़ैगा नहीं।”
“अच्छा, अब बोधासिंह कैसा है?”
“अच्छा है।”
“जैसे मैं जानता ही न होऊं! रात-भर तुम अपने कंबल उसे उढ़ाते हो और आप सिगड़ी के सहारे गुजर करते हो। उसके पहरे पर आप पहरा दे आते हो। अपने सूखे लकड़ी क़े तख्तों पर उसे सुलाते हो, आप कीचड़ में पड़े रहते हो। कहीं तुम न मंदे पड़ जाना। जाड़ा क्या है, मौत है और 'निमोनिया' से मरने वालों को 'मुरब्बे' नहीं मिला करते।”
“मेरा डर मत करो। मैं तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरूंगा। भाई कीरतसिंह की गोदी पर मेरा सिर होगा और मेरे हाथ के लगाये हुए आंगन के आम के पेड़ की छाया होगी।”
वजीरासिंह ने त्योरी चढ़ाकर कहा- “क्या मरने-मराने की बात लगाई है? मरें जर्मनी और तुरक! हां, भाइयो, कैसे-"
दिल्ली शहर तें पिशोर नुं जांदिए,
कर लेणा लौंगां दा बपार मड़िए;
कर लेणा नादेड़ा सौदा अड़िए --
(ओय) लाणा चटाका कदुए नुं।
कद्दू बणया वे मजेदार गोरिये,
हुण लाणा चटाका कदुए नुं।।
कौन जानता था कि दाढ़ियों वाले, घरबारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गाएंगे, पर सारी खंदक इस गीत से गूंज उठी और सिपाही फिर ताजा हो गये मानो चार दिन से सोते और मौज ही करते रहे हों!

(3)
दो पहर रात गई है। अंधेरा है। सुनसान मची हुई है। बोधसिंह तीन खाली बिसकुटों के टिनों पर अपने दोनों कंबल बिछाकर और लहनासिंह के दो कंबल और एक बरानकोट ओढ़कर सो रहा है। लहनासिंह पहरे पर खड़ा हुआ है। एक आंख खाई के मुंह पर है और एक बोधसिंह के दुबले शरीर पर। बोधसिंह कराहा।
“क्यों बोधा भाई¸ क्या है?”
“पानी पिला दो।”
लहनासिंह ने कटोरा उसके मुंह से लगाकर पूछा - “कहो, कैसे हो?” 
पानी पीकर बोधा बोला- “कंपनी छूट रही है। रोम-रोम में तार दौड़ रहे हैं। दांत बज रहे हैं।”
“अच्छा¸ मेरी जरसी पहन लो !”
“और तुम?”
“मेरे पास सिगड़ी है और मुझे गर्मी लगती है; पसीना आ रहा है।”
“ना¸ मैं नहीं पहनता, चार दिन से तुम मेरे लिए...”
“हां¸ याद आई। मेरे पास दूसरी गरम जरसी है। आज सवेरे ही आई है। विलायत से बुन-बुनकर भेज रही हैं मेमें¸ गुरु उनका भला करें।” यों कहकर लहना अपना कोट उतारकर जरसी उतारने लगा।
“सच कहते हो?”
“और नहीं झूठ?” यों कहकर नांहीं करते बोधा को उसने जबरदस्ती जरसी पहना दी और आप खाकी कोट और जीन का कुरता भर पहनकर पहरे पर आ खड़ा हुआ। मेम की जरसी की कथा केवल कथा थी।
आधा घंटा बीता। इतने में खाई के मुंह से आवाज आई- “सूबेदार हजारासिंह।”
“कौन लपटन साहब? हुकुम हुजूर !” -कहकर सूबेदार तनकर फौजी सलाम करके सामने हुआ।
“देखो¸ इसी दम धावा करना होगा। मील-भर की दूरी पर पूरब के कोने में एक जर्मन खाई है। उसमें पचास से ज्यादा जर्मन नहीं हैं। इन पेड़ों के नीचे-नीचे दो खेत काटकर रास्ता है। तीन-चार घुमाव हैं। जहां मोड़ है वहां पंद्रह जवान खड़े कर आया हूं। तुम यहां दस आदमी छोड़कर सबको साथ ले उनसे जा मिलो। खंदक छीनकर वहीं¸ जब तक दूसरा हुक्म न मिले, डटे रहो। हम यहां रहेगा।”
“जो हुक्म।”
चुपचाप सब तैयार हो गये। बोधा भी कंबल उतारकर चलने लगा। तब लहनासिंह ने उसे रोका। लहनासिंह आगे हुआ तो बोधा के बाप सूबेदार ने उंगली से बोधा की ओर इशारा किया। लहनासिंह समझकर चुप हो गया। पीछे दस आदमी कौन रहें¸ इस पर बड़ी हुज्जत हुई। कोई रहना न चाहता था। समझा-बुझाकर सूबेदार ने मार्च किया। लपटन साहब लहना की सिगड़ी के पास मुंह फेरकर खड़े हो गये और जेब से सिगरेट निकालकर सुलगाने लगे। दस मिनट बाद उनने लहना की ओर हाथ बढ़ाकर कहा- “ लो तुम भी पियो।”
आंख पलकते-पलकते लहनासिंह सब समझ गया। मुंह का भाव छिपाकर बोला - “लाओ, साहब!” हाथ आगे करते उसने सिगड़ी के उजास में साहब का मुंह देखा। बाल देखे। मथा ठनका। लपटन साहब के पट्टियों वाले बाल एक दिन में ही कहां उड़ गए और उनकी जगह कैदियों के-से कटे हुए बाल कहां से आ गए?”
शायद साहब पिये हुए हैं और उन्हें बाल कटवाने का मौका मिल गया है! लहनासिंह ने जांचना चाहा। लपटन साहब पांच वर्ष से उसकी रेजिमेंट में रहे थे।
“क्यों साहब¸ हम लोग हिन्दुस्तान कब जायेंगे?”
“लड़ाई खत्म होने पर। क्यों, यह देश पसंद नहीं?”
“नहीं साहब¸ वह शिकार के मजे यहां कहां? याद है, पारसाल नकली लड़ाई के पीछे हम-आप जगाधरी के जिले में शिकार करने गये थे!
'हां-हां...'
'वही जब आप खोते पर सवार थे और आपका खानसामा अब्दुल्ला रास्ते के एक मन्दिर में जल चढ़ाने को रह गया था!'
'बेशक, पाजी कहीं का-’
सामने से वह नीलगाय निकली कि ऐसी बड़ी मैंने कभी नही देखी। और आपकी एक गोली कंधे में लगी और पुट्‌ठे में निकली। ऐसे अफसर के साथ शिकार खेलने में मजा है। क्यों साहब¸ शिमले से तैयार होकर उस नीलगाय का सिर आ गया था न? आपने कहा था कि रजमंट की मैस में लगायेंगे।
‘हां, पर मैंने वह विलायत भेज दिया-’
“ऐसे बड़े-बड़े सींग! दो-दो फुट के तो होंगे?”
“हां¸ लहनासिंह¸ दो फुट चार इंच के थे। तुमने सिगरेट नहीं पिया?”
“पीता हूं साहब¸ दियासलाई ले आता हूं।” कहकर लहनासिंह खंदक में घुसा। अब उसे संदेह नहीं रहा था। उसने झटपट विचार किया कि क्या करना चाहिए।
अंधेरे में किसी सोने वाले से टकराया। “कौन? वजीरासिंह?”
“हां¸ क्यों लहना? क्या कयामत आ गई? जरा तो आंख लगने दी होती?”

(4)
“होश में आओ। कयामत आई है और लपटन साहब की वर्दी पहन कर आई है।”
“क्या?”
“लपटन साहब या तो मारे गये हैं या कैद हो गए हैं। उनकी वर्दी पहनकर कोई जर्मन आया है। सूबेदार ने इसका मुंह नहीं देखा। मैंने देखा और बातें की हैं। सोहरा साफ उर्दू बोलता है¸ पर किताबी उर्दू। और मुझे पीने को सिगरेट दिया है।”
“तो अब!”
“अब मारे गए। धोखा है। सूबेदार होरां कीचड़ में चक्कर काटते फिरेंगे और यहां खाई पर धावा होगा। उठो, एक काम करो। पलटन के पैरों के निशान देखते-देखते दौड़ जाओ। अभी बहुत दूर नहीं गए होंगे। सूबेदार से कहो कि एकदम लौट आवें। खंदक की बात सब झूठ है। चले जाओ¸ खंदक के पीछे से निकल जाओ। पत्ता तक न खड़के। देर मत करो।”
“हुकम तो यह है कि यहीं-- ”
“ऐसी-तैसी हुकुम की! मेरा हुकुम- जमादार लहनासिंह, जो इस बख्त यहां सबसे बड़ा अफसर है¸ उसका हुकुम है। मैं लपटन साहब की खबर लेता हूं।”
“पर यहां तो सिर्फ तुम आठ ही हो।”
“आठ नहीं¸ दस लाख। एक-एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता है। चले जाओ।”
लौटकर खाई के मुहाने पर लहनासिंह दीवाल से चिपक गया। उसने देखा कि लपटन साहब ने जेब से तीन बेल के बराबर गोले निकाले। तीनों को जगह-जगह खंदक की दीवालों में घुसेड़ दिया और तीनों में एक तार-सा बांध दिया। तार के आगे एक सूत की एक गुत्थी थी¸ जिसे सिगड़ी के पास रखा। और बाहर की तरफ जाकर एक दियासलाई जलाकर गुत्थी पर रखने ही वाला था कि इतने में बिजली की तरह दोनों हाथों से उल्टी बंदूक को उठाकर लहनासिंह ने साहब की कुहनी पर तानकर दे मारा। धमाके के साथ साहब के हाथ से दियासलाई गिर पड़ी। लहनासिंह ने एक कुंदा साहब की गर्दन पर मारा और साहब 'आख! मीन गौट्‌ट' कहते हुए चित्त हो गये। लहनासिंह ने तीनों गोले बीनकर खंदक के बाहर फैंके और साहब को घसीटकर सिगड़ी के पास लिटाया। जेबों की तलाशी ली। तीन-चार लिफाफे और एक डायरी निकालकर उन्हें अपनी जेब के हवाले किया।
साहब की मूर्छा हटी! लहनासिंह हंसकर बोला- “क्यों लपटन साहब! मिजाज कैसा है? आज मैंने बहुत बातें सीखीं। यह सीखा कि सिख सिगरेट पीते हैं। यह सीखा कि जगाधरी के जिले में नीलगायें होती हैं और उनके दो फुट चार इंच के सींग होते हैं। यह सीखा कि मुसलमान खानसामा मंदिरों में पानी चढ़ाते हैं और लपटन साहब खोते पर चढ़ते हैं। पर यह तो कहो, ऐसी साफ उर्दू कहां से सीख आये? हमारे लपटन साहब तो बिना 'डैम' के पांच लफ्ज भी नहीं बोला करते थे।”
लहना ने पतलून के जेबों की तलाशी नहीं ली थी। साहब ने मानो जाड़े से बचने के लिए¸ दोनों हाथ जेबों में डाले।
लहनासिंह कहता गया- “चालाक तो बड़े हो पर मांझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ रहा है। उसे चकमा देने के लिये चार आंखें चाहिएं। तीन महीने हुए, एक तुरकी मौलवी मेरे गांव आया था। औरतों को बच्चे होने के ताबीज बांटता था और बच्चों को दवाई देता था। चौधरी के बड़ के नीचे मंजा बिछाकर हुक्का पीता रहता था और कहता था कि जर्मनी वाले बड़े पंडित हैं। वेद पढ़-पढ़ कर उनमें से विमान चलाने की विद्या जान गये हैं। गौ को नहीं मारते। हिंदुस्तान में आ जायेंगे तो गोहत्या बंद कर देंगे। मंडी के बनियों को बहकाता था कि डाकखाने से रुपए निकाल लो; सरकार का राज आने वाला है। डाकबाबू पोल्हूराम भी डर गया था। मैंने मुल्ला जी की दाढ़ी मूंड दी थी और गांव से बाहर निकालकर कहा था कि जो मेरे गांव में अब पैर रक्खा तो-”
साहब की जेब में से पिस्तौल चली और लहना की जांघ में गोली लगी। इधर लहना की हैनरी मार्टिनी के दो फायरों ने साहब की कपालक्रिया कर दी। धड़ाका सुनकर सब दौड़ आये।
बोधा चिल्लाया- “क्या है?”
लहनासिंह ने उसे तो यह कहकर सुला दिया कि 'एक हड़का हुआ कुत्ता आया था, मार दिया' और औरों को सब हाल कह दिया। सब बंदूकें लेकर तैयार हो गये। लहना ने साफा फाड़कर घाव के दोनों तरफ पट्टियां कसकर बांधी। घाव मांस में ही था और पट्टियों के कसने से लहू निकलना बंद हो गया।
इतने में सत्तर जर्मन चिल्लाकर खाई में घुस पड़े। सिखों की बंदूकों की बाढ़ ने पहले धावे को रोका। दूसरे को रोका। पर यहां थे आठ। (लहनासिंह तक-तक कर मार रहा था- वह खड़ा था और¸ और लेटे हुए थे) और वे सत्तर। अपने मुर्दा भाइयों के शरीर पर चढ़कर जर्मन आगे घुसे आते थे।
अचानक आवाज आई 'वाह गुरुजी का खालसा, वाह गुरुजी की फतह!!' और धड़ाधड़ बंदूकों के फायर जर्मनों की पीठ पर पड़ने लगे। ऐन मौके पर जर्मन दो चक्की के पाटों में आ गये। पीछे से सूबेदार हजारासिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने लहनासिंह के साथियों के संगीन चल रहे थे। पास आने पर पीछे वालों ने भी संगीन पिरोना शुरू कर दिया।
एक किलकारी और- 'अकाल सिक्खां दी फौज आई! वाह गुरुजी दी फतह! वाह गुरुजी दा खालसा! सत श्री अकाल पुरुख!!!' और लड़ाई खतम हो गई। तिरसठ जर्मन या तो खेत रहे थे या कराह रहे थे। सिखों में पंद्रह के प्राण गये। सूबेदार के दाहिने कंधे में से गोली आर-पार निकल गई। लहनासिंह की पसली में एक गोली लगी। उसने घाव को खंदक की गीली मिट्टी से पूर लिया और बाकी का साफा कसकर कमरबंद की तरह लपेट लिया। किसी को खबर न पड़ी कि लहना के दूसरा घाव- भारी घाव लगा है।
लड़ाई के समय चांद निकल आया था, ऐसा चांद कि जिसके प्रकाश से संस्कृत-कवियों का दिया हुआ 'क्षयी' नाम सार्थक होता है। और हवा ऐसी चल रही थी जैसी कि बाणभट्‌ट की भाषा में 'दंतवीणोपदेशाचार्य’ कहलाती। वजीरासिंह कह रहा था कि कैसे मन-मन भर फ्रांस की भूमि मेरे बूटों से चिपक रही थी जब मैं दौड़ा-दौड़ा सूबेदार के पीछे गया था। सूबेदार लहनासिंह से सारा हाल सुन और कागजात पाकर उसकी तुरतबुद्धि को सराह रहे थे और कह रहे थे कि तू न होता तो आज सब मारे जाते।
इस लड़ाई की आवाज तीन मील दाहिनी ओर की खाई वालों ने सुन ली थी। उनने पीछे टैलीफोन कर दिया था। वहां से झटपट दो डाक्टर और दो बीमारों को ढोने की गाडियां चलीं, जो एक-डेढ़ घंटे के अंदर-अंदर आ पहुंचीं। फील्ड अस्पताल नजदीक था। सुबह होते-होते वहां पहुंच जाएंगे¸ इसलिये मामूली पट्टी बांधकर एक गाड़ी में घायल लिटाये गये और दूसरी में लाशें रखी गईं। सूबेदार ने लहनासिंह की जांघ में पट्टी बंधवाना चाही। पर उसने यह कहकर टाल दिया कि थोड़ा घाव है, सबेरे देखा जायेगा। बोधासिंह ज्वर में बर्रा रहा था। वह गाड़ी में लिटाया गया। लहना को छोड़कर सूबेदार जाते नहीं थे। यह देख लहना ने कहा- “तुम्हें बोधा की कसम है, और सूबेदारनी जी की सौगंध है जो इस गाड़ी में न चले जाओ।”
“और तुम?”
“मेरे लिये वहां पहुंचकर गाड़ी भेज देना। और जर्मन मुरदों के लिये भी तो गाड़ियां आती होंगी। मेरा हाल बुरा नहीं है। देखते नहीं, मैं खड़ा हूं? वजीरासिंह मेरे पास है ही।”
“अच्छा, पर..”
“बोधा गाड़ी पर लेट गया? भला! आप भी चढ़ जाओ। सुनिये तो, सूबेदारनी होरां को चिठ्ठी लिखो तो मेरा मत्था टेकना लिख देना। और जब घर जाओ तो कह देना कि जो उनने कहा था वह मैंने कर दिया।”
गाड़ियां चल पड़ी थीं। सूबेदार ने चढ़ते-चढ़ते लहना का हाथ पकड़कर कहा- “तैंने मेरे और बोधा के प्राण बचाए हैं। लिखना कैसा, साथ ही घर चलेंगे। अपनी सूबेदारनी को तू ही कह देना। उसने क्या कहा था?”
“अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ। मैंने जो कहा, वह लिख देना और कह भी देना।”
गाड़ी के जाते ही लहना लेट गया। “वजीरा पानी पिला दे और मेरा कमरबंद खोल दे। तर हो रहा है।”
मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ हो जाती है। जनम-भर की घटनाएं एक-एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ होते हैं, समय की धुन्ध बिल्कुल उन पर से हट जाती है।


लहनासिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहां आया हुआ है। दही वाले के यहां, सब्जीवाले के यहां, हर कहीं, उसे एक आठ वर्ष की लड़की मिल जाती है। जब वह पूछता है कि 'तेरी कुड़माई हो गई?' वो ‘धत्‌’ कहकर भाग जाती है। एक दिन उसने वैसे ही पूछा तो उसने कहा- "हां, कल हो गई¸ देखते नहीं यह रेशम के फूलों वाला सालू!" सुनते ही लहनासिंह को दु:ख हुआ। क्रोध हुआ। क्यों हुआ?
“वजीरासिंह¸ पानी पिला दे।”
पचीस वर्ष बीत गये। लहनासिंह नं. 77 रैफल्स में जमादार हो गया है। उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा। न मालूम वह कभी मिली थी, या नहीं। सात दिन की छुट्टी लेकर जमीन के मुकद्दमे की पैरवी करने वह अपने घर गया। वहां रेजिमेंट के अफसर की चिठ्ठी मिली कि फौज लाम पर जाती है। फौरन चले आओ। साथ ही सूबेदार हजारासिंह की चिठ्ठी मिली कि मैं और बोधासिंह भी लाम पर जाते हैं। लौटते हुए हमारे घर होते जाना। साथ ही चलेंगे। सूबेदार का गांव रास्ते में पड़ता था और सूबेदार उसे बहुत चाहता था। लहनासिंह सूबेदार के यहां पहुंचा।
जब चलने लगे¸ तब सूबेदार बेड़े में से निकलकर आया। बोला- “लहना, सूबेदारनी तुमको जानती है। बुलाती है, जा मिल आ।” लहनासिंह भीतर पहुंचा। सूबेदारनी मुझे जानती है? कब से? रेजिमेंट के क्वार्टरों में तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं। दरवाजे पर जाकर 'मत्था टेकना' कहा। असीस सुनी। लहनासिंह चुप।
"मुझे पहचाना?"
“नहीं।”
'तेरी कुड़माई हो गई? - 'धत्'‌ - 'कल हो गई' - 'देखते नहीं, रेशमी बूटों वाला सालू - अमृतसर में.. '
भावों की टकराहट से मूर्छा खुली। करवट बदली। पसली का घाव बह निकला।
'वजीरा¸ पानी पिला' -‘उसने कहा था।'
स्वप्न चल रहा है। सूबेदारनी कह रही है- “मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया। एक काम कहती हूं। मेरे तो भाग फूट गए। सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया है, लायलपुर में जमीन दी है¸ आज नमकहलाली का मौका आया है। पर सरकार ने हम तीमियों की एक घघरिया पलटन क्यों न बना दी जो मैं भी सूबेदार जी के साथ चली जाती? एक बेटा है। फौज में भरती हुए उसे एक ही बरस हुआ। इसके पीछे चार और हुए¸ पर एक भी नहीं जिया।" सूबेदारनी रोने लगी। ‘अब दोनों जाते हैं। मेरे भाग! तुम्हें याद है, एक दिन तांगेवाले का घोड़ा दही वाले की दुकान के पास बिगड़ गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाये थे, आप घोड़े की लातों में चले गए थे और मुझे उठाकर दुकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया था। ऐसे इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे मैं आंचल पसारती हूं।'
रोती-रोती सूबेदारनी ओबरी में चली गई। लहना भी आंसू पोंछता हुआ बाहर आया।
‘वजीरा, पानी पिला’ - 'उसने कहा था।' 
लहना का सिर अपनी गोदी में लिटाए वजीरासिंह बैठा है। जब मांगता है¸ तब पानी पिला देता है। आध घंटे तक लहना गुम रहा। फिर बोला- 
“कौन! कीरतसिंह?”
वजीरा ने कुछ समझकर कहा, “हां।”
“भइया, मुझे और ऊंचा कर ले। बस पट्ट पर मेरा सिर रख ले।” 
वजीरा ने वैसे ही किया।
“हां, अब ठीक है। पानी पिला दे। बस, अब के हाड़ में यह आम खूब फलैगा। चाचा-भतीजा दोनों यहीं बैठकर आम खाना। जितना बड़ा तेरा भतीजा है, उतना ही यह आम है। जिस महीने उसका जन्म हुआ था¸ उसी महीने में मैंने इसे लगाया था।”
वजीरासिंह के आंसू टप-टप पड़ रहे थे।
कुछ दिन पीछे लोगों ने अखबारों में पढ़ा- 
फ्रांस और बेल्जियम - 68 वीं सूची - मैदान में घावों से मरा - नं. 77 सिख राइफल्स - जमादार लहनासिंह।

Tuesday, July 6, 2010

एक उदास कविता

उदास हूं मैं 
समूचा ब्रह्माण्ड 
सिमटकर, हो चला है 
शरीक़ मेरी उदासी में 

महासागर 
खाने लगे हैं गोते 
आशंकाओं के 
अनजान भंवर में

सतरंगी इन्द्रधनुष 
रंगहीन होकर 
सफेद पड़ गया है

अठखेलियां करती 
उनमुक्त हवाएं 
मंद हो रही हैं
धीरे-धीरे

समूचे ग्रह की ऊष्मा 
सर्द हो चुकी है 

यह आकाश और धरा 
विलीन हो गए हैं मुझमें 
और मैं उनमें। 
-माधवी

Saturday, July 3, 2010

फ़लक होने के बाद

 
मैं तुम्हें फ़लक की
उन ऊंचाइयों तक
पहुंचा देना चाहती हूं 
जहां पहुंचकर तुम
तुम न रहो 
फ़लक हो जाओ

लेकिन डरती हूं
फ़लक होने के बाद
कहीं तुम 
ज़मीं से
अपना नाता न तोड़ लो! 
-माधवी
 

(Picture: Starry night by Van Gogh)
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